अर्शी की आए-दिन मियां से लड़ाई हो जाती है. झगड़ा इतना बढ़ जाता है कि अर्शी सोचने लगती कि इस आदमी के साथ पूरी जिन्दगी कैसे काटेगी. डर लगता है कि कहीं किसी दिन आदिल उसे तलाक ही न दे दे. बड़ी असुरक्षित सी जिन्दगी जी रही थी. हर वक्त सीने में धुकधुकी सी लगी रहती. लड़ाई भी ऐसे मुद्दे पर कि कोई सुने तो हंसी निकल जाए.

आदिल को सफाई की सनक थी. सनक भी ऐसी-वैसी नहीं, बहुत बड़ी. उसे भी और उसकी मां को भी. वो घर को किसी होटल की तरह चमचमाता हुआ देखना चाहते थे. धूल का कण न मिले कहीं, हर चीज चमकती हुई हो, फर्श पर हर वक्त फिनाइल का पोछा. बाहर से आओ तो लगता कि घर में नहीं, किसी अस्पताल में घुसे हो. अर्शी यहां हर काम ऐसे संभाल-संभाल कर करती थी कि कहीं उससे कोई चूक न हो जाए. कहीं कुछ गिर न जाए, कुछ टूट न जाए. वह किचेन को कई-कई बार पोंछती कि कहीं पानी की कोई बूंद पड़ी न दिख जाए आदिल को.

बेडरूम में कोई कपड़ा, सामान, कागज, अखबार इधर-उधर न पड़ा हो. सबकुछ भलीभांति व्यवस्थित हो. आदिल के आफिस से आते ही वह उसकी हर चीज जल्दी-जल्दी करीने से लगा देती, ताकि उसके गुस्से से बची रहे. सात साल हो गए शादी को और अर्शी को इंसान से रोबोट बने हुए. वह आज तक इस घर को अपना नहीं समझ पायी. समझे भी कैसे, वह कभी अपने तरीके से कुछ कर ही नहीं पायी यहां. घर को सुविधानुसार और अपने अनुरूप तो वह रख ही नहीं पाती है.

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