गरमी के दिन थे. मेरे छोटे से घर के चारों ओर की पहाडि़यां मुलायम व गहरे हरे रंग की हरी घास, जिस में जगहजगह बैगनी और सफेद जंगली फूल खिले हुए थे, से ढकी थीं. मैं इस छोटे से घर में इस पहाड़ी स्थान पर कुछ शांति पाने की आशा में सदा के लिए रहने आ गई थी. कुछ समय पहले तक मेरे पास सबकुछ था. मेरे सुंदर इंजीनियर पति मु झे बहुत प्यार करते थे. हम हर प्रकार से सुखी थे. लेकिन मेरी और सरस की दुनिया तब तहसनहस हो गई जब मैं ने एक मृत बच्ची को जन्म दिया. उस समय मैं ने खूब आंसू बहाए थे.

सरस तब मेरे पास ही खड़े थे जब नर्स ने उस मृत बच्ची को मुझे पकड़ाया था. लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा. बस, उठ कर बाहर चले गए. उन का सर्द, खामोशीभरा व्यवहार मु झे भीतर तक आहत कर गया था. हम ने पहले ही सोच रखा था कि यदि बेटी हुई तो हम उसे सुरभि कह कर पुकारेंगे. अब यदि वह मृत पैदा हुई तो इस में मेरा क्या दोष था. तब मैं और मेरी मृत बेटी ही अस्पताल के उस कमरे में रह गए थे. मैं जीभर कर रोई और फिर एकाएक चुप हो कर मृत बच्ची को सीने से लगा लिया. फिर उस के लिए पहले से खरीदी हुई सुंदर सफेद  झालर वाली फ्रौक, छोटे मोजे व सुंदर टोपी पहना कर उसे निहारा. तब ऐसा लगा कि अभी आंखें खोल कर मुझे देखने लगेगी.

कुछ देर बाद ही सरस वापस आए और खिड़की के बाहर देखने लगे. उन की पीठ मेरी ओर थी. बाहर का जीवन यथावत चल रहा था. आतेजाते वाहनों की आवाज, धूप, पेड़ सभी दृश्य वैसे ही दिख रहे थे जैसे हमेशा दिखते थे. मेरे साथ इतनी भयानक घटना घट चुकी थी पर किसी पर भी उस का प्रभाव दिखाई नहीं दिया था. सरस ने तो मुझ से एक शब्द भी नहीं बोला था. घर आने पर मैं अपनेआप में खोई सी रहने लगी. सुरभि का चेहरा मेरी आंखों से हटाए नहीं हटता था. शायद मु झे किसी सांत्वना देने वाले की, किसी सहारे की आवश्यकता थी, पर मेरे आसपास ऐसा कोई भी तो नहीं था.

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