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लेखक-नीरज कुमार मिश्रा

कोरोना माहमारी का असर जब कम हुआ तो जनजीवन फिर से सामान्य होने लगा, लोग औफिस जाने लगे, मार्केट पहले की तरह सजने लगी थी, और तो और अब प्रेमी भी एकदूसरे से बेरोकटोक मिलने लगे. कोरोना को रोकने के लिए किए गए लौकडाउन ने कोरोना की रोकथाम करने में कोई मदद की हो या न की हो, पर इस लौकडाउन के बाद बेरोजगारी को कितना बढ़ा दिया था, इस का अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है.

पर हम सभी को इस पेट की आग बु झाने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ता है. लौकडाउन के समय हमारी कहानी के बेरोजगार नौजवानों ने अपना पेट भरने के लिए जो रास्ता चुना, वह उन की नजरों में भले सही हो, पर समाज की नजरों में गलत है. एक महल्ले में रहने वाले 4 लड़के जीत सिंह, रमेश, दिलावर और विवेक कुमार अलगअलग जगहों पर नौकरी करते थे और कोरोना संकट के समय इन्हें नौकरी से निकाल दिया गया था और अब ये इधरउधर भटक रहे थे. इन के लिए अपने छोटेमोटे खर्चे निकालना भी मुश्किल हो रहा था.

‘‘इस कोरोना को भी हमारी जिंदगी में ही आना था क्या...? अच्छीखासी जिंदगी कट रही थी... अब हम क्या करेंगे... नौकरियों की कमी हो गई है, अब हम अपना खर्चा कैसे चलाएं?’’ दिलावर ने अपना गुस्सा सड़क पर पड़े एक कैन पर लात मार कर निकाला. ‘‘ऐसे समय में मु झे तो नहीं लगता कि हालफिलहाल हमें कोई नौकरी देगा, इसलिए हमें कुछ सोचना पड़ेगा. और वैसे भी देखो भाई, पैसा ही पैसे को खींचता है ये कहावत है तो पुरानी, पर अब भी फिट बैठती है,’’ जीत सिंह ने कहा.

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