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‘‘सुबूत तो रहा इस कैमरे के अंदर जिस पर अभी तुम ने अपना इकरारनामा किया है,’’ अपने कुरते के बटन पर लगा हुआ एक माइक्रो कैमरा दिखाते हुए वह लड़की बोली.

‘‘और अब बाकी की जिंदगी काटना जेल में,’’ दूसरी लड़की ने कहा.

‘‘पर, तुम कौन हो और यह पुलिस यहां तक कैसे पहुंची?’’

‘‘अरे, आजकल ऐसे सवाल कौन करता है और तुम लोग तो अपनेआप को बड़ा मास्टर सम झते हो. तुम्हें तो इतना पता होना चाहिए कि जीपीएस द्वारा हम किसी की भी लोकेशन ट्रैक कर सकते हैं. और रही बात कि मैं कौन हूं, तो मैं बता दूं कि मैं उस लड़की की बड़ी बहन हूं, जिस का रेप तुम तीनों ने मिल कर किया था और ब्लैक मेल कर के पैसे भी ऐंठे थे,’’ उस लड़की ने कहा.

‘‘नहीं, हमें माफ कर दो, मैं उस रेप में शामिल नहीं था. और... और ,हम लोग कोई पेशेवर क्रिमिनल नहीं हैं... यह तो लौकडाउन के दौरान ऐसे हालात बन गए कि मजबूरन हमें यह काम करना पड़ा,’’ दिलावर कहे जा रहा था.

‘‘लौकडाउन तो सब के लिए था. इस का मतलब यह नहीं होता कि हम सब अपराध की राह पर चल पड़ें... अब जो किया है, उसे भुगतो,’’ पुलिस इंस्पैक्टर ने कहा.

उस के बाद उन लोगों के पास से भारी नकदी और कई मोबाइल फोन और लैपटौप भी मिला.

बस जो नहीं मिल सका... वह उन बेचारे लोगों की जिंदगियां थीं, जो इन लोगों के हाथों में पड़ने के बाद खत्म हो चुकी थीं

समस्या

सरकारी बनाम निजी अस्पताल

बदनामी के बहाने

निजीकरण की राह

मदन कोथुनियां

सरकारी अस्पतालों के खिलाफ पूंजीवादी मौडल के इन कर्ताधर्ताओं ने बदनामी की ऐसी मुहिम चलाई है कि जनता का उन से मोह भंग हो जाए और सरकार समाज कल्याण की जिम्मेदारी निजी लोगों के हाथों में सौंप कर चैन की नींद सो सके.

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