एक बार एक सरकारी कर्मचारी  सरकारी कार्य से कहीं जा कर आए थे. रास्ते में उन के पांव में कांटा लग गया. वे दफ्तर में आ कर कराहने लगे. सहकर्मी ने पूछा, ‘क्यों, क्या बात है?’ कर्मचारी बोला, ‘कांटा चुभ गया है पांव में.’ सहकर्मी बोला, ‘तो दुखी क्यों होते हो, कांटा निकाल फेंको.’ कर्मचारी बोला, ‘अभी क्यों निकालूं. अभी तो लंचटाइम है, यह मेरा निजी समय है. ड्यूटी के समय निकालूंगा.’

मेरे एक सरकारी सहकर्मी हैं. उन का हाल यह है कि पहली बात तो वे आते ही औफिस में घंटाडेढ़घंटा देर से हैं. आते हैं तो पहले अपनी सीट पर न बैठ कर अनुभाग कक्ष में बैठे दूसरे साथियों से उन की सीट पर जा कर वर्माजी नमस्ते, शर्माजी नमस्ते और नमस्ते भाई गुप्ताजी करते हैं. काम में लगे ये शर्मा और वर्मा काम करते हुए बेमन से उन से हाथ मिलाते हैं और वे हाथ तब तक नहीं छोड़ते, जब तक कि उन से उन की कुशलक्षेम नहीं पूछ लेते. सहकर्मियों को अपने कार्य की हड़बड़ी होती है और वे महाशय इधरउधर की गपबाजी शुरू कर देते हैं.

उधर उन की सीट पर होने वाले कार्य के लिए आने वाले बेताबी से इंतजार करते हैं कि वे सीट पर आ जाएं तो वे उन से अपना कार्य करवा लें. महाशय सीट पर आ जाएंगे तो विजिटर्स पर ही अपना तकियाकलाम दाग देते हैं- ‘और क्या हाल हो रहे हैं.’ बेचारा आने वाला अपने काम की जल्दी में होता है और वे उसे फालतू बातों में उलझाए रखते हैं.

ऐसे हालात में बताइए व्यंग्य का निशाना सरकारी कर्मचारी नहीं तो क्या सड़क बनाने वाला कामगार आदमी बनेगा? सरकारी दफ्तरों की कार्यशैली इसी तरह की हो जाने से सरकारी दफ्तर और उन के कर्मचारी उपहास के पात्र हैं. आज सरकारी कर्मचारी को मोटा वेतन मिलता है और दूसरी बीस तरह की सुविधाएं मिलती हैं. बावजूद इस के, वे कामचोरी और बहानेबाजी के नायाब करतबों से काम करने से बचते हैं.

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लंचटाइम आधे घंटे का होता है और कर्मचारी लंच के बहाने आधे घंटे पहले उठ जाता है और लंच समाप्ति के आधे घंटे बाद अपनी सीट पर प्रकट होता है.

मेरे एक जानकार हैं. वे अपनी लड़की की शादी के लिए सरकारी कर्मचारी लड़के की तलाश में 4 वर्षों से भटक रहे हैं. मैं ने उन्हें समझाया भी कि कौर्पोरेट क्षेत्र में अच्छे वर आप की लड़की को मिल जाएंगे, लेकिन उन का तर्क है कि सरकारी सेवा में आराम है और सेवानिवृत्ति पर पैंशन मिलती है, जिस से बुढ़ापा आसानी से निकल जाता है.

सरकारी कर्मचारी को आरामतलबी का पर्याय मान कर लोग रिश्तेनाते बनाते हैं. बताइए, देश इस तरह कैसे विकसित हो पाएगा. राजनीतिक दलों के हालात ऐसे हैं कि वे चुनाव जीतने के लिए विकास करने और गरीबों के उत्थान की बातें तो करते हैं लेकिन सत्तारूढ़ होने पर सत्तासुख भोगने व सरकारी रकम और कार्यक्रमों में घोटाले करने में लिप्त हो जाते हैं. इस का सीधा असर अधीनस्थ सेवा के कर्मियों पर पड़ता है और वे रिश्वतखोरी, गबनघोटालों में लिप्त होने की ओर अग्रसर हो जाते हैं. जनसेवा से जुड़े विभागों में यह दुर्गुण ज्यादा देखने में आता है. वहां रिश्वत का बोलबाला हो जाता है. जनता की धारणा बन जाती है कि वहां तो बिना रिश्वत खिलाए काम होगा ही नहीं. यह छवि न तो विभाग को उज्ज्वलता प्रदान करती है और न ही कर्मचारी को बेदाग छवि दे पाती है. इसलिए कर्मचारियों को इन उपहासों से बचने के लिए अपने दायित्वबोध के प्रति सजग और सचेष्ट होना चाहिए. आज लोगों ने अपना जीवनस्तर अपनी आमदनी से अधिक बढ़ा लिया है, इस वजह से गलत रास्तों से पैसा कमाने की होड़ सी मच गई है, जिस का खमियाजा जनता को झेलना पड़ता है. कर्मचारियों को दायित्वशीलता से विमुख नहीं होना चाहिए.

शायद आप गोपाल को नहीं जानते हैं. गोपाल को मैं जानता हूं. गोपाल एक सरकारी कार्यालय में बाबू है. अभी मैं उस की चारित्रिक विशेषताएं बताऊंगा तो आप भी उसे जान जाएंगे. कार्यालयी कामकाज में वह एक मक्कार किस्म का इंसान है. काम के नाम पर उस के देवता कूच कर जाते हैं. काम से बचने को उस के पास सौ बहाने हैं. आज उसे बच्चे को स्कूल छोड़ना है, कल उसे बच्चे को स्कूल से लाना है, कभी उस की पत्नी आएगी तो उस के साथ जाना पड़ेगा, कभी उस की तबीयत ठीक नहीं है तो कभी वह किसी की अंत्येष्टि या तीये की बैठक में जाएगा.

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वह सवेरे ही तय कर लेता है कि उसे कौन सा फार्मूला आजमाना है. मुझे खुद को उस के पूरे बहाने याद नहीं हैं. इन बिंदुओं को देखते हुए यह भी विचारणीय है कि उस का अफसर उसे कैसे लगातार बरदाश्त कर रहा है या वे क्यों नहीं उसे कामचोरी से रोक पाते हैं. दरअसल, गोपाल में चापलूसी का अद्भुत गुण मौजूद है. दूसरा, उस का सीनियर पूरी गंभीरता से कार्यालय में बैठ कर काम निबटा रहा है. चापलूसी में उस की अद्भुत क्षमता के आगे कोई भी लाजवाब हो सकता है.

यदि गोपाल दफ्तर में बैठा है और कोई डाक आ गई तो वह बहुत सावधानी से अवलोकन करने के बाद उसे अपने किसी साथी की ओर डायवर्ट कर के खुद निद्रालीन हो जाता है. किसी तरह की कार्यालयी चिंता न होने से वह दफ्तर के लौन में नींद भी ले लेता है. उस से पूछो कि वह कहां था, तो वह यही कहेगा, ‘मैं तो यहीं था.’ झूठ का कारोबार इतना प्रबल है कि आप स्वयं लज्जित हो जाएं, पर उस के जूं तक नहीं रेंगती. उस के गुणनफल अचंभित करने वाले होते हैं. कोई लैटर उसे टाइप करने को दे दिया जाए तो वह अपने किसी दूसरे साथी से याचना कर के अपना पिंड छुड़ा लेता है और उस के बाद घंटेदोघंटे के लिए वहां से लापता हो जाता है.

मैं उसे इसी आलम में 10 वर्षों से देख रहा हूं. वह हर बात भूल जाता है तथा उसे कुछ भी याद नहीं रहता. ये उस की जानबूझ कर की जाने वाली चालाकियां हैं. वह अभी तक अपनी किसी लापरवाही के लिए दंडित नहीं किया गया है, बल्कि वह चमचा सूत्रों से अच्छे कर्मचारी के रूप में सम्मानित भी हो चुका है. एक प्रमोशन भी वह इसी के बूते पर ले चुका है.

वह अभी और प्रमोशन लेना चाहता है तथा केवल साइन करने वाला पद प्राप्त करना चाहता है ताकि सारी झंझटों से मुक्ति पा सके. वेतन के प्रति वह पूरी तरह सजग है. वेतन स्लिपों को गौर से देखना व कटौतियों का हिसाबकिताब रखना उसे बखूबी आता है. उस का रोना यह भी है कि उसे वेतन उस के सीनियर्स से कम क्यों मिलता है.

कुछ चापलूस किस्म के कर्मचारी होते हैं, जो अपने काम से बचने के लिए अधिकारी के साथ अपने निजी काम के बहाने मौजमस्ती करते हैं. अफसर का एक काम लिया और दिनभर नदारद. इस से जहां वे स्वयं मक्कार बन जाते हैं, वहीं दूसरे कर्मी भी इस ओर प्रेरित होने लगते हैं.

अफसर भी चापलूसपसंद देखे गए हैं. जो कर्मचारी उन की चमचागीरी करता है उस से कुछ कहते नहीं तथा स्वाभिमानी और सेवाभावी कर्मियों पर काम का बोझ लाद कर दफ्तर का माहौल दूषित करते हैं. इसलिए जब तक एकदूसरे की लगाम कसने का काम नहीं होगा, तब तक सरकारी कर्मचारी की स्थिति विडंबनापूर्ण ही बनी रहने वाली है, जो कि देश, समाज व जनसामान्य के लिए विनाशकारी है.

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इस दृष्टि से सरकारी कर्मचारी व्यंग्य का पात्र बनेगा ही बनेगा. इस से बचने का सर्वकालिक उपाय तो सेवाभाव व दायित्वशीलता ही है जो कर्मचारी को व्यंग्य का पात्र बनने से बचा सकती है. नहीं तो, कर्मचारी कथा अनंत है और उस के अवगुण भी अनेक हैं.

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