आजकल रोज नए धंधे निकल रहे हैं. सभी में तेजी व मंदी का जोखिम बना रहता है. साथ ही, तारीख निकल जाने का भी खतरा बना रहता है. इन सब से हट कर एक धंधा ऐसा है, जो इन जोखिमों से दूर बिना पूंजी के अपनी धरती पर सदियों से धड़ल्ले से चलता आ रहा है. वह है, धर्म का धंधा. हाथ कंगन को आरसी क्या… अपने शहर के एक नामी पंडितजी के घर पिछले दिनों मेरा जाना हुआ. दूर के रिश्ते में वे मेरे ताऊजी लगते थे, सो अच्छीबुरी हर बात खुल कर हम लोग आपस में कर लिया करते थे. सारा शहर उन्हें पंडितजी के नाम से जानता है. इसलिए मेरी भी यही कहने की आदत पड़ गई है.

जब मैं उन के घर गया, तो वे एक आरामदेह सोफे पर बैठे थे. जैसे ही उन की आंखों ने मेरी सूरत देखी, तो उन्होंने एक आह भरी. वे अपनी उभरी तोंद पर हाथ फिराते हुए बोले, ‘‘आओ बेटा, बैठो. कहो, कैसे आना हुआ आज?’’

मैं ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘बस पंडितजी, आप के दर्शन करने के लिए ही आया हूं.’’

यह सुनते ही पंडितजी के चेहरे पर एक चमक उभर आई. वे बोले, ‘‘कुछ अपनी सुनाओ, अभी तक कोई नौकरी मिली या नहीं?’’

पास ही पड़ी एक कुरसी पर बैठते हुए मैं ने कहा, ‘‘कहां मिली है नौकरी? अब तो सोच रहा हूं कि पढ़ाईलिखाई में इतने साल बरबाद किए, इस से तो अच्छा था कि मैं भी आप के साथ पंडिताई में लग जाता. अब तक काफीकुछ खाकमा लेता.’’

यह सुनते ही पंडितजी खिलखिला कर हंसने लगे. वे बोले, ‘‘अभी भी क्या बिगड़ा है, बेटे? छोड़ दो यह पैंटशर्ट पहनना और धोतीकुरता अपना लो, फिर देखो कि कैसा मस्त चलता है तुम्हारा धंधा.’’ मैं यह बात सुनने के लिए पहले से ही तैयार बैठा था. मैं तपाक से बोला, ‘‘पंडितजी, केवल धोतीकुरता पहनने से क्या होगा? मंत्रों की जानकारी भी तो होनी जरूरी है.’’

पंडितजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘तुम भी औरों की तरह बड़े भोले हो बेटे. अरे, पंडिताई में मंत्रों की तो कम और ऊंटपटांग चीखनेचिल्लाने की जरूरत ज्यादा पड़ती है. आज वही विद्वान है, जो यजमान के सामने ऊंची आवाज में पूजा करवाए.’’

मैं बड़ी दुविधा में पड़ गया. मैं ने पूछा, ‘‘पर पंडितजी, पूजा करवाने का कोई तरीका तो होता ही है. वह भी तो मुझे नहीं आता.’’

‘‘पूजा में केवल दोचार बातों का ध्यान रखना पड़ता है. बाकी अपनी जरूरत के मुताबिक पूजा करवाते जाओ और दक्षिणा चढ़वाते जाओ,’’ पंडितजी अपने पेट पर हाथ फिराते हुए बोले.

मैं और ज्यादा उलझ गया. बोला, ‘‘उलटीसीधी पूजा करवाई गई, तो वह फलदायी होगी क्या?’’ ‘‘तुम फिर बेवकूफों जैसे सवाल पूछ रहे हो. अरे, आज तक अपने द्वारा करवाई गई पूजा से किसी यजमान का न तो भला हुआ है और न ही बुरा. यह तो अपने बड़ेबुजुर्ग समझदार आदमी थे, जो ऐसी परंपरा चला गए, जिस से कि उन का और उन की आने वाली पीढ़ी का गुजारा होता रहे.’’

‘‘धन्य हो पंडितजी, धन्य हो. अब आप की गूढ़ बातें मेरी समझ में आ रही हैं,’’ मैं खुशी से झूम उठा. पंडितजी ने अपनी एक आंख बंद करते हुए धीमी आवाज में कहा, ‘‘साल 2 साल हमारी सेवा में रह कर गुरु विद्या में होशियार हो जाओगे. बोलो, क्या इरादा है?’’

मैं सिर झुकाता हुआ बोला, ‘‘मुझे मंजूर है पंडितजी. पूजापाठ की बात अब मेरी समझ में आ रही है. आप जन्मकुंडली भी बनाते हैं, उस में क्या करना है?’’ पंडितजी को जैसे मालूम था कि मैं क्या पूछूंगा. मेरे कहने से पहले ही वे कागजकलम निकाल कर उलटीसीधी रेखाएं खींचने लगे. कुछ आड़ीतिरछी रेखाएं खींचने के बाद वे मुझे कागज दिखाते हुए बोले, ‘‘यह जन्मांग चक्रम ध्यान से देख लो. इस में मैं तुम्हें 9 ग्रह भरना सिखाऊंगा. इस में एक बात का तुम्हें हमेशा ध्यान रखना है कि प्रत्येक यजमान को 8 ग्रहों के सही जगह पर बैठे रहने की सूचना देनी है और जिंदगी में मिलने वाले सारे सुखवैभव गिनाने हैं, जो कि उस को मिलेंगे. ‘‘इस के बाद 9वें ग्रह को देखते हुए अपने चेहरे पर चिंता का भाव लाना है. इस महान बलशाली 9वें ग्रह के उलट जगह में बैठे रहने से सारी दशा बदलनी है. पहले गिनाए सुखों को दुखों में बदलना है,’’ कह कर पंडितजी चुप हो गए.

मैं उन की बात बड़े ध्यान से सुन रहा था. एकाएक पंडितजी की बात अधूरी हो जाने से मैं बेचैन हो उठा और पूछा, ‘‘इस से क्या होगा पंडितजी?’’

मेरी उत्सुकता का मजा लेते हुए वे बोले, ‘‘इस से यजमान तुम्हारे सामने हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाएगा और पूछेगा कि इस ग्रह की शांति का कोई उपाय कीजिए. तब तुम्हें आसामी देख कर उस हिसाब से ही ग्रह शांति का उपाय करवाना है और उस से मनचाहा चढ़ावा लेना है.’’ मैं ने बिना देर किए हां में अपना सिर हिलाया. पंडितजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘ये तो आम बातें हैं, जो मैं ने तुम्हें बताई हैं. धंधे की बारीकियां जैसेजैसे काम करोगे, वैसेवैसे सीखते चले जाओगे.’’

‘‘पंडितजी, यदि देखा जाए, तो यह एक तरह से धर्म के नाम पर लूट ही तो हुई न?’’

‘‘तो इस में बुराई ही क्या है?’’ पंडितजी तनिक ऊंची आवाज में बोले, ‘‘आखिर जब क्रिकेटरों को मैच फिक्सिंग का, नेताओं को घोटालों का, सरकारी अफसरों को रिश्वत लेने का जन्मसिद्ध अधिकार मिला हुआ है, तो क्या हम पंडों को धर्म के नाम पर लूटने का भी हक नहीं बनता?’’

मैं उन के तेवर देख कर कुरसी से खड़ा हो गया और बोला, ‘‘अच्छा पंडितजी, अब मैं चलता हूं. कल जब आऊंगा, तो आप के कपड़ों में ही आऊंगा और आप के नक्शेकदम पर चलते हुए इस शहर में आप ने जो इज्जत बनाई है, उस तक पहुंचने की कोशिश करूंगा.’’

पंडितजी ने भी आशीर्वाद के रूप में हाथ जोड़ दिए. जाते समय मेरे कान में उन की गुनगुनाहट सुनाई दी, ‘‘रामनाम जपना, पराया माल अपना…’’

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