आज फिर शुभ्रा का खत आया था, स्पीड पोस्ट से. मैं हैरान था कि हर रोज तो मोबाइल पर इतनी बातें होती हैं फिर खत लिखने की नौबत कैसे आ गई. दरअसल, हमें मिले साल से ऊपर हो गया था, इसीलिए उस के गिलेशिकवे बहुत बढ़ गए थे. भारी मन से मैं उस का खत पढ़ने लगा. उस के खत में शिकायतें, शिकवे, उलाहने थे. अगले पेज पर भी बदस्तूर एकदूसरे की जुदाई में गीली लकडि़यों की तरह सुलगते, पानी के बिना मछली की तरह तड़पते और साबुन की टिकिया की तरह घुलते जाने का जिक्र था.

एक बात हर तीसरे वाक्य के बाद लिखी थी, ‘कहीं तुम मुझ  से दूर तो नहीं हो जाओगे न, मुंह तो नहीं फेर लोगे? मैं ने तो अपना तनमन तुम्हें समर्पित कर दिया, कहीं तुम भी मेरे पति की तरह तो नहीं करोगे? मेरे हो कर भी.’

फिर भावुक शब्दों में लिखा था, ‘मैं यहां इतने लाखों इंसानों के बीच अकेली, लगातार अपनी पहचान खोती जा रही हूं. तुम में वह नजर आता है जो दूसरों में नजर नहीं आता. मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहने में गर्व महसूस करूंगी. कहीं तुम बदलने तो नहीं लगे हो?’ तुम्हारी बातों से तो लगता है कि तुम हारने लगे हो. तुम मिले थे तो लगा था कि अब मेरा कोई है जिस के सहारे मैं जीवन को सार्थक ढंग से काट सकूंगी. अब लगातार तुम से दूर रह कर एक अनसोचा डर मुझे खाए जा रहा है कि कहीं मैं तुम्हें खो न दूं. अब तुम से कब मुलाकात होगी. तुम मिलो तो दिल का सारा गर्द व गुबार उतरे.’

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...