केशव हाल ही में तबादला हो कर बस्तर से जगदलपुर के पास सुकुमा गांव में रेंजर पद पर आए थे. जगदलपुर के भीतरी इलाके नक्सलवादियों के गढ़ हैं, इसलिए केशव अपनी पत्नी करुणा और दोनों बच्चों को यहां नहीं लाना चाह रहे थे. एक दिन केशव की नजर एक मजदूरिन पर पड़ी, जो जंगल में सूखी लकडि़यां बीन कर एक जगह रखती जा रही थी. वह मजदूरिन लंबा सा घूंघट निकाले खामोशी से अपना काम कर रही थी. उस ने बड़ेबड़े फूलों वाली गुलाबी रंग की ऊंची सी साड़ी पहन रखी थी. वह गोरे रंग की थी. उस ने हाथों में मोटा सा कड़ा पहन रखा था व पैरों में बहुत ही पुरानी हो चुकी चप्पल पहन रखी थी.

उस मजदूरिन को देख कर केशव उस की उम्र का अंदाजा नहीं लगा पा रहे थे, फिर भी अपनी आवाज को नम्र बनाते हुए बोले, ‘‘सुनो बाई, क्या तुम मेरे घर का काम करोगी? मैं अभी यहां नयानया ही हूं.’’ केशव के मुंह से अचानक घर के काम की बात सुन कर पहले तो मजदूरिन घबराई, लेकिन फिर उस ने हामी भर दी इस बीच केशव ने देखा, उस मजदूरिन ने अपना घूंघट और नीचे खींच लिया. केशव ने वहां पास ही खड़े जंगल महकमे के एक मुलाजिम को आदेश दिया, ‘‘तोताराम, तुम इस बाई को मेरे घर ले जाओ.’’ तोताराम केशव की बात सुन कर एक अजीब सी हंसी हंसा और सिर झुका कर बोला, ‘‘जी साहब.’’

केशव उस की इस हंसी का मतलब समझ नहीं सके. तोताराम ने तुरंत मजदूरिन की तरफ मुड़ कर कहा, ‘‘चल गेंदा, तुझे साहब का घर दिखा दूं.’’ केशव ने उस मजदूरिन के लंबे घूंघट पर ध्यान दिए बिना ही उस से पूछा, ‘‘तुम हमारे घर के सभी काम कर लोगी न, जैसे कपड़े धोना, बरतन मांजना, घर की साफसफाई वगैरह? मैं यहां अकेला ही रहता हूं.’’

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...