चीन से लड़ाई के बाद भारतीय फौज में बहुत जोरों से भरती हो रही थी क्योंकि चीन ने 1962 में हमें हमारी औकात बता दी थी. गांवगांव से चंदा इकट्ठा किया जा रहा था. औरतें अपने जेवर उतार कर दे रही थीं. हम भी 12वीं में फेल हो गए थे. जोश आया, फौज में भरती हो गए. ट्रेनिंग बहुत मुश्किल थी. दिनरात भागना, दौड़ना, पीटी, हथियारों की टे्रनिंग, ऊपर से कविता की तरह गालियां. हम ने जैसेतैसे कामयाबी के साथ ट्रेनिंग पूरी कर ली और भागदौड़ की मुसीबत खत्म हो गई. उस जमाने में हमारा वेतन 80 रुपए था जो ट्रेनिंग पास कर के सिपाही बनने के बाद 150 रुपए हो गया. खाना, रहना फ्री. इस बीच, बहुत लोगों को चोटें लगीं, कुछ लोग नौकरी छोड़ कर भाग गए.हमारे गांव से थोड़ी दूर का एक जवान था जिस का नाम था ताहिर हुसैन. वह रोज मेरे पास आ कर एक ही बात दोहराता, ‘जैन साहब, मुझे फौज की नौकरी नहीं करनी है, मेरा एक निवेदन बना दो.’ मैं उसे टाल देता. एक दिन जब उस ने बहुत जिद की तो मैं ने उस का निवेदन टाइप कर दिया.

वह उसे ले कर कर्नल साहब के पास चला गया. कर्नल साहब ने उसे बहुत समझाया, ‘फौज में ट्रेनिंग के दौरान तो बहुत तकलीफ होती है लेकिन ट्रेनिंग के बाद आराम ही आराम. नौकरी खत्म होने के बाद पैंशन, बच्चों की पढ़ाई की सुविधा, रहने के लिए आवास फ्री. और क्या चाहिए.’ ताहिर हुसैन उन की बात बहुत गौर से सुनता रहा. फिर बोला, ‘‘सर, इस नौकरी से तो अच्छा है आदमी सड़क पर मूंगफली बेच ले.’’ उस की इस हीनता के भाव पर कर्नल साहब को इतना गुस्सा आया कि उस के डिस्चार्ज आवेदन को मंजूर कर लिया और उसे 24 घंटे के भीतर कैंटोन्मैंट क्षेत्र से बाहर कर दिया गया. कई साल तक मेरी उस से मुलाकात नहीं हुई. एक बार जब मैं अपने गांव गया तो देखा वह फटी हुई लुंगी पहन कर अपनी बकरी बेच रहा था. बातचीत में उस ने फौज की सरकारी नौकरी छोड़ने पर अफसोस जाहिर किया.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...