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सारांश का स्थानांतरण अचानक ही चमोली में हो गया. यहां आ कर उसे नया अनुभव हो रहा था. एक तो पहाड़ी इलाका, उस पर जानपहचान का कोई भी नहीं. पहाड़ी इलाकों में मकान दूरदूर होते हैं. दिल्ली जैसे शहर में रह कर सारांश को ट्रैफिक का शोर, गानों की आवाजें और लोगों की बातचीत के तेज स्वर सुनने की आदत सी पड़ गई थी. किंतु यहां तो किसी को देखने के लिए भी वह तरस जाता था. जिस किराए के मकान में वह रह रहा था, वह दोमंजिला था. ऊपर के घर से कभीकभी एक बच्चे की मीठी सी आवाज कानों में पड़ जाती थी. पर कभी आतेजाते किसी से सामना नहीं हुआ था उस का.

उस दिन रविवार को नाश्ता कर के वह बाहर लौन में कुरसी पर आ कर बैठ गया. पास ही मेज पर उस ने लैपटौप रखा हुआ था. कौफी के घूंट भरते हुए वह औफिस का काम निबटा रहा था, तभी अचानक मेज पर रखे कौफी के मग में ‘छपाक’ की आवाज आई. सारांश ने एक तरफ जा कर कौफी घास पर उड़ेल दी. इतनी देर में ही पीछे से एक बच्चे की प्यारी सी आवाज सुनाई दी, ‘‘अंकल, मेरा मोबाइल.’’

सारांश ने मुड़ कर बच्चे की ओर देखा और मुसकराते हुए पास रखे टिशू पेपर से कौफी में गिरे हुए फोन को साफ करने लगा.

‘‘लाइए अंकल, मैं कर लूंगा,’’ कहते हुए बच्चे ने अपना नन्हा हाथ आगे बढ़ा दिया.

किंतु फोन सारांश ने साफ कर दिया और बच्चे को थमा दिया. बच्चा जल्दी से फोन को औन करने लगा. लेकिन कईर् बार कोशिश करने के बाद भी वह औन नहीं हुआ. बच्चे का मासूम चेहरा रोंआसा हो गया.

उस की उदासी दूर करने के लिए सारांश बोला. ‘‘अरे, वाह, तुम्हारा फोन तो छलांग मार कर मेरी कौफी में कूद गया था. अभी स्विमिंग पूल से निकला है, थोड़ा आराम करने दो, फिर औन कर के देख लेना. चलो, थोड़ी देर मेरे पास बैठो, नाम बताओ अपना.’’

‘‘अंकल, मेरा नाम प्रियांश है,’’ पास रखी दूसरी कुरसी पर बैठता हुआ वह बोला, ‘‘पर यह मोबाइल औन क्यों नहीं हो रहा, खराब हो गया है क्या?’’ चिंतित हो कर वह सारांश की ओर देखने लगा.

‘‘शायद, पर कोई बात नहीं. मैं तुम्हारे पापा से कह दूंगा कि इस में तुम्हारी कोई गलती नहीं है, अपनेआप छूट गया था न फोन तुम्हारे हाथ से?’’

‘‘हां अंकल, मैं हाथ में फोन को पकड़ कर ऊपर से आप को देख रहा था,’’ भोलेपन से उस ने कहा.

‘‘फिर तो पापा जरूर नया फोन दिला देंगे तुम्हें. हां, एक बात और, तुम इतने प्यारे हो कि मैं तुम्हें चुनमुन नाम से बुलाऊंगा, ठीक है?’’ सारांश ने स्नेह से प्रियांश की ओर देखते हुए कहा.

‘‘बुला लेना चुनमुन कह कर, मम्मी भी कभीकभी मुनमुन कह देती हैं मु झे. पर मेरे पापा तो बहुत दूर रहते हैं. मु झ से कभी मिलने भी नहीं आते. अब मैं नानी से फोन पर बात कैसे करूंगा?’’ कहते हुए चुनमुन की आंखें डबडबा गईं.

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सारांश को चुनमुन पर तरस आ गया. प्यार से उस के गालों को थपथपाता हुआ वह बोला, ‘‘चलो, हम दोनों बाजार चलते हैं, मैं दिला दूंगा तुम को मोबाइल फोन.’’

‘‘पर अंकल, मेरी मम्मी नहीं मानेंगी न,’’ चुनमुन ने नाक चढ़ाते हुए ऊपर अपने घर की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘अरे, आप की मम्मी को मैं मना लूंगा. हम दोनों तो दोस्त बन गए न, तुम्हारा नाम प्रियांश और मेरा सारांश. चलो, तुम्हारे घर चलते हैं,’’ कहते हुए सारांश ने चुनमुन का हाथ थाम लिया और सीढि़यों पर चढ़ना शुरू कर दिया.

दरवाजे पर नाइटी पहने खड़ी गौरवर्ण की आकर्षक महिला शायद चुनमुन का इंतजार कर रही थी. सारांश को देख कर वह एक बार थोड़ी सकपकाई, फिर मुसकरा कर अंदर आने को कहती हुई आगेआगे चलने लगी. भीतर आ कर सारांश ने अपना परिचय दिया.

उस के बारे में वह केवल इतना ही जान पाया कि उस का नाम शीतल है और पास के ही एक विद्यालय में अध्यापिका है. चुनमुन ने मोबाइल की घटना एक सांस में बता दी शीतल को, और साथ ही यह भी कि अंकल ने उस का नाम चुनमुन रखा है, इसलिए शीतल भी उसे इसी नाम से बुलाया करे, मुनमुन तो किसी लड़की के नाम जैसा लगता है.

शीतल रसोई में चली गई और सारांश चुनमुन से बातें करने लगा. तब तक शीतल फू्रट जूस ले कर आ गई. सारांश ने शाम को बाजार जाने का कार्यक्रम बना लिया. शीतल को भी बाजार में कुछ काम था. पहले तो वह साथ जाने में थोड़ी  िझ झक रही थी, पर सारांश के आग्रह को वह टाल न सकी.

तीनों शाम को सारांश की कार में बाजार गए और रात को बाहर से ही खाना खा कर घर लौटे. बाजार में चुनमुन सारांश की उंगली पकड़े ही रहा. सारांश भी कई दिनों से अकेलेपन से जू झ रहा था. इसलिए उसे भी उन दोनों के साथ एक अपनत्व का एहसास हो रहा था. शीतल के चेहरे पर आई चमक को सारांश साफसाफ देख पा रहा था. वह खुश था कि पड़ोसी एकदूसरे के साथ किस प्रकार एक परिवार की तरह जु

उस दिन के बाद चुनमुन अकसर सारांश के पास आ जाया करता था, सारांश भी कभीकभी उन के घर जा कर बैठ जाता था. सारांश को शीतल ने बताया कि उस के मातापिता हिमाचल प्रदेश में रहते हैं. ससुराल पक्ष के विषय में उस ने कभी कुछ नहीं बताया. सारांश भी अकसर उन को अपने मातापिता व छोटी बहन सुरभि के विषय में बताता रहता था. पिता दिल्ली में एक व्यापारी थे जबकि छोटी बहन एक साल से मिस्र में अपने पति के साथ रह रही थी.

उस दिन सारांश औफिस में बाहर से आए हुए कुछ व्यक्तियों के साथ व्यस्त था. एक महत्त्वपूर्ण बैठक चल रही थी. उस के फोन पर बारबार चुनमुन का फोन आ रहा था. सारांश ने 3-4 बार फोन काट दिया पर चुनमुन लगातार फोन किए जा रहा था. बैठक के बीच में ही बाहर जा कर सारांश ने उस से बात की.

चुनमुन को तेज बुखार था. शीतल ने डाक्टर को दिखा कर दवाई दिलवा दी थी और लगातार उस के पास ही बैठी थी. पर चुनमुन तो जैसे सारांश को ही अपनी पीड़ा बताना चाहता था. सारांश के दुलार से मिला अपनापन वह अपने नन्हे से मन में थाम कर रखना चाहता था.

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सारांश ने बैठक में जा कर सब से क्षमा मांगी और अपने स्थान पर किसी दूसरे व्यक्ति को बैठा कर औफिस से सीधा चुनमुन के पास आ गया. उसे देखते ही चुनमुन खिल उठा. शीतल भी मन ही मन राहत महसूस कर रही थी. चुनमुन ने सारांश को अपने घर कपड़े बदलने भी तभी जाने दिया जब उस ने रात को चुनमुन के घर ठहरने का वादा किया. शीतल के आग्रह पर सारांश रात का खाना उन के साथ ही खाने को तैयार हो गया.

तेज बुखार के कारण चुनमुन की नींद बारबार खुल रही थी, इसलिए शीतल और सारांश उस के पास ही बैठे थे. अपनेपन की एक डोर दोनों को बांध रही थी. अपने जीवन के पिछले दिन दोनों एकदूसरे के साथ सा झा कर रहे थे. सारांश का जीवन तो कमोबेश सामान्य ही बीता था, पर शीतल एक भयंकर तूफान से गुजर चुकी थी.

कुछ वर्षों पहले वह अपनी दादी के घर हिमाचल के सुदूर गांव में गई थी. उन का गांव मैक्लोडगंज के पास पड़ता था जहां अकसर सैलानी आतेजाते रहते हैं. एक रात वह ठंडी हवा का आनंद लेती हुई कच्ची सड़क पर मस्ती से चली जा रही थी. अचानक एक कार उस के पास आ कर रुकी. पीछे से किसी ने उस का मुंह दबोच लिया और उसे स्त्री जन्म लेने की सजा मिल गई.

अंधेरे में वह उस दानव का चेहरा भी न देख पाई और वह तो अपने पुरुषत्त्व का दंभ भरते हुए चलता बना. उसे तो पता भी नहीं कि एक नन्हा अंकुर वह वहीं छोड़ कर जा रहा है. शीतल का नन्हा चुनमुन. मातापिता ने शीतल पर चुनमुन को अनाथाश्रम में छोड़ कर विवाह करने का दबाव बनाया पर वह नहीं मानी. लोग तरहतरह की बातें कर के उस के मातापिता को तंग न करें, इसलिए उस ने घर से दूर आ कर रहने का निर्णय कर लिया. चुनमुन उस के लिए अपनी जान से बढ़ कर था.

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