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चुनमुन का बुखार कम हुआ तो दोनों थोड़ी देर आराम करने के लिए लेट गए. सारांश की आंखों से नींद कोसों दूर थी. वह रहरह कर शीतल के बारे में सोच रहा था, ‘कितनी दर्दभरी जिंदगी जी रही हो तुम, जैसे कोई फिल्मी कहानी हो. इतनी पीड़ा सह कर भी चुनमुन का पालनपोषण ऐसा कि यह बाग का खिला हुआ फूल लगता है, टूट कर मुर झाया हुआ नहीं.

पुरुष के इतने वीभत्स रूप को देखने के बाद भी तुम मु झ से अपना दर्द बांट पाई. तुम शायद यह जानती हो कि हर पुरुष बलात्कारी नहीं होता. तुम्हारे इस विश्वास के लिए मैं तुम्हारा जितना सम्मान करूं, वह कम है. स्वयं जीवन की नकारात्मकता में जी रही हो और दूसरों को सकारात्मक ऊर्जा दे रही हो. तुम कितनी अच्छी हो, शीतल.’ शीतल को मन ही मन इस तरह सराहते हुए सारांश उस का सब से बड़ा प्रशंसक बन चुका था.

2-3 दिनों में चुनमुन का बुखार कम होना शुरू हो गया. औफिस के अलावा सारांश अपना सारा समय आजकल चुनमुन के साथ ही बिता रहा था. शीतल ने स्कूल से छुट्टियां ली हुई थीं, इसलिए बाहर से सामान आदि लाने का काम भी सारांश ही कर दिया करता था. उस का सहारा शीतल के लिए एक परिपक्व वृक्ष के समान था, फूलों से लदी बेल सी वह उस के बिना अधूरा अनुभव करने लगी थी स्वयं को. स्त्री एक लता ही तो है जो पुरुष का आश्रय पा कर और भी खिलती है तथा निस्वार्थ हो कर सब के लिए फलनाफूलना चाहती है.

चुनमुन का बुखार उतरा तो कामवाली बाई बीमार पड़ गई. दोनों घरों का काम लक्ष्मी ही देखती थी. उस ने शीतल को फोन पर सूचना दी और यह सूचना जब वह सारांश को देने पहुंची तो वह सिर पकड़ कर बैठ गया. रात को उस की मां नीलम का फोन आया था कि वे सुरभि के साथ 2 दिनों के लिए चमोली आ रही हैं. सिर्फ एक सप्ताह के लिए भारत आई थी सुरभि और सारांश से बिना मिले वापस नहीं जाना चाहती थी.

‘‘लगता है दोनों यहां आ कर काम में ही लगी रहेंगी,’’ सारांश ने निराश हो कर शीतल से कहा.

‘‘तुम क्यों फिक्र करते हो, मैं सब देख लूंगी,’’ शीतल के इन शब्दों से सारांश को कुछ राहत मिली और वह घर की चाबी शीतल को सौंप कर औफिस चला गया. सारांश की मां नीलम और सुरभि दोपहर को पहुंचने वाली थीं. शीतल ने चुनमुन की बीमारी के कारण पहले ही पूरे सप्ताह की छुट्टियां ली हुई थीं विद्यालय से.

सुरभि और मां सारांश की अनुपस्थिति में घर पहुंच गईं. शीतल के रहते उन्हें किसी भी प्रकार की समस्या नहीं हुई. सारांश के आने पर भी वह सारा घर संभाल रही थी. चुनमुन भी सारांश की मां से बहुत जल्दी घुलमिल गया.

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2 दिन कैसे बीत गए, किसी को पता ही नहीं लगा. जाने से एक दिन पहले रात का खाना खाने के लिए शीतल ने सब को अपने घर पर बुलाया. घर की साजसज्जा, खाने का स्वाद, रहने का सलीका आदि से सारांश की मां शीतल से प्रभावित हुए बिना न रह सकीं. बैडरूम में पुराने गानों की सीडी और विभिन्न विषयों पर पुस्तकों का खजाना देख कर सुरभि को शीतल के शौक अपने जैसे ही लगे और वह प्रसन्नता से चहकती हुई हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ का आनंद लेने लगी. चुनमुन सारांश की मां से कहानियां सुन रहा था.

देररात भारी मन से वे शीतल के घर से आए. घर आ कर भी वे दोनों सारांश से शीतल और चुनमुन के बारे में ही बातें कर रही थीं. मौका पा कर सारांश ने शीतल की जिंदगी की दुखभरी कहानी दोनों को सुनाई और शीतल को घर की बहू बनाने का आग्रह किया. किंतु उसे जो शंका थी, वही हुआ. मां ने इस रिश्ते के लिए साफ इनकार कर दिया. सारांश के इस फैसले से सुरभि यद्यपि सहमत थी किंतु मां ने विभिन्न तर्क दे कर उस का मुंह बंद कर दिया. अगले दिन दोनों दिल्ली वापस चली गईं.

वापस दिल्ली आ कर सुरभि 3 दिन और रही मां के पास, और फिर वापसी के लिए रवाना हो गई. मां अपनी दिनचर्या शुरू नहीं कर पा रही थीं. एक तो सब से मिलने के बाद अकेलापन और उस पर सुरभि का पहुंच कर फोन न आना. दिन तो जैसेतैसे कट गया, पर रात में चिंता के कारण उन्हें नींद नहीं आ रही थी. ‘सुबह कुछ तो करना ही होगा,’ उन के यह सोचते ही मोबाइल बज उठा. फोन सुरभि का ही था.

‘‘मम्मा, प्रकृति का शुक्रिया अदा करो कि तुम्हारी बेटी और दामाद सलामत है,’’ सुरभि ने डरी पर राहतभरी आवाज में कहा.

‘‘क्यों, क्या हो गया, बेटा?’’ मां का मुंह भय से खुला रह गया.

‘‘हमारे प्लेन में कुछ आतंकवादी घुस गए थे. अपहरण करना चाह रहे थे वे जहाज का. हमारा समय अच्छा था कि अंदर राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के 3 कमांडो भी यात्रा कर रहे थे. उन्होंने उन शैतानों की एक न चलने दी और हम सभी सुरक्षित अपनेअपने ठिकानों पर पहुंच गए,’’ सुरभि ने एक सांस में ही सब कह डाला. मां ने राहत की सांस ली और उसे आराम करने को कह कर फोन काट दिया.

मां की आंखों से तो जैसे नींद पूरी तरह उड़ गई. ‘क्या होता अगर कुछ अनहोनी हो गई होती? वे दरिंदे यात्रियों की जान ले लेते या फिर महिलाओं के साथ कुछ और…’ यह सोच कर मां का कलेजा कांप उठा. उन्हें सहसा शीतल का ध्यान आ गया, ‘कितनी बेबस होगी वह भी उस रात… कौन चाहता है कि उस की इज्जत तारतार हो जाए?

क्या कुसूर है शीतल या चुनमुन का? शीतल को क्यों यह अधिकार नहीं है कि वह भी बुरे समय से निकल कर नई खुशियों को गले लगाए. क्यों वह उस शैतान का दिया हुआ दुख ढोती रहे जीवनभर.’ सोचते हुए मां ने एक फैसला किया और रात में ही फोन मिला दिया सारांश को.

‘‘कहो मम्मा,’’ सारांश ने ऊंघते हुए फोन उठा कर कहा.

‘‘बेटा, सुरभि ठीक से पहुंच गई है. मैं ने सोचा कि तु झे बता दूं, वरना तू चिंता कर रहा होगा. और हां, एक बात और कहनी है. सुरभि 3 महीने बाद फिर आ रही है इंडिया, उस की सहेली की शादी है. तू भी टिकट ले ले अभी से ही यहां आने का. छुट्टियां जरा ज्यादा ले कर आना. जल्दी ही तु झे भी बंधन में बांध देना चाहती हूं मैं. जिस महीने में जन्मदिन होता है उसी महीने में शादी हो तो अच्छा माना जाता है हम लोगों में. जल्दी ही तारीख बता दूंगी तु झे.’’

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‘‘अरे मम्मा, क्या हो गया आज आप को? मेरा जन्मदिन तो पिछले महीने ही था न. मैं आप की बात सम झ नहीं पा रहा ठीक से,’’ परेशान सा होता हुआ सारांश बोला.

‘‘तो मैं कब कह रही हूं कि दूल्हे का जन्मदिन ही पड़ना चाहिए उस महीने. दुलहन का भी हो सकता है. शीतल के जन्मदिन के बारे में चुनमुन बता रहा था मु झे उस दिन.’’

सारांश को एक बार तो अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ मां की बात सुन कर, फिर आश्चर्य और हर्ष से मुसकराते हुए वह बोला, ‘‘पर मम्मा, शीतल से तो पूछने दो मु झे.’’

‘‘मैं ने पढ़ ली थीं उस की आंखें,’’ मां ने छोटे से उत्तर से निरुत्तर कर दिया सारांश को.

सुबह होते ही सारांश शीतल के पास पहुंच गया. चुनमुन सो कर उठा ही था. सारांश को देखते ही उस से लिपट गया.

‘‘आज तुम्हारे स्कूल में पेरैंट्सटीचर मीटिंग है न? क्या मैं चल सकता हूं तुम्हारे साथ पापा बन कर?’’ कहते हुए सारांश ने चुनमुन को स्नेहभरी निगाहों से देखा. चुनमुन प्यार से सारांश के गाल चूमने लगा और शीतल भाग गई वहां से. एक कोने में हाथ जोड़ कर खड़ी शीतल की आंखों से टपटप बहते आंसू सारी सीमाएं तोड़ देना चाहते थे.

शीतल मुड़ कर वापस आई तो सारांश के आगे सिर  झुका लिया अपना. सारांश ने मुसकरा कर उस की ओर देखा मानो कह रहा हो, ‘कह दो आंसुओं से कि दूर चले जाएं तुम्हारी आंखों से, तुम मेरी हो अब, सिर्फ मेरी.’

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