सब काम निबटातेनिबटाते, भागतेदौड़ते वे स्कूल पहुंचतीं. कई बार तो शिखा को देर से स्कूल पहुंचने पर डांट भी खानी पड़ती. इसी प्रकार शाम को घर लौटने पर जब मां अपनी चाय बनातीं तो बारीबारी पूरे घर के लोग चाय के लिए आ धमकते और फिर वे रसोई से बाहर ही न आ पातीं. रात में शिखा अपनी पढ़ाई करतेकरते मां का इंतजार करती कि कब वे आएं तो वह उन से किसी सवाल या समस्या का हल, या प्रश्न का उत्तर पूछ ले. परंतु मां काम से फुरसत ही नहीं पातीं और वह कौपीकिताब लिएलिए ही सो जाती. जब मां आतीं तो बड़े प्यार से उसे उठ कर खाना खिलातीं और सुला देतीं. फिर अगले दिन सुबह उठ कर उसे पढ़ातीं.
यदि वह कभी मामा या मामी के पास कुछ हल पूछने जाती तो वे लोग हंस कर उस की खिल्ली उड़ाते और उस से कहते, ‘अरे बिटिया, क्या करना है इतना पढ़लिख कर? अफसरी तो करनी नहीं तुझे. चल, मां के साथ थोड़ा हाथ बंटा ले, काम तो यही आएगा.’
वह खीझ कर वापस आ जाती. परंतु उन की उपहासभरी बातों से उस ने हिम्मत न हारी, न ही निराशा को अपने मन में घर करने दिया, बल्कि वह और भी दृढ़ इरादों के साथ पढ़ाई में जुट जाती.
मामामामी अपने बच्चों के साथ अकसर बाहर घूमने जाते और बाहर से ही खापी कर आते. मगर भूल कर भी कभी न उस से, न ही उस की मां से पूछते कि उन का भी कहीं आनेजाने का या बाहर का कुछ खाने का मन तो नहीं. और तो और, जब भी घर में कोई बहुत बढि़या, स्वादिष्ठ चीज बनती तो मामी अपने बच्चों को पहले परोसतीं और उन को भरभर के देतीं. वह एक किनारे चुपचाप अपनी प्लेट लिए, अपना नंबर आने की प्रतीक्षा में खड़ी रहती. सब से बाद में मामी अपनी आवाज में बनावटी मिठास भर के उस से ‘अरे, बिटिया, तुम भी आ गईं. आओ, आओ,’ कह कर बचाखुचा, कंजूसी से उस की प्लेट में डाल देतीं.
तब उस का मन बहुत कचोटता और कह उठता कि काश, आज उस के भी पापा होते, तो वे उस को कितना प्यार करते, कितने प्यार से उसे खिलाते. तब किसी की भी हिम्मत न होती जो उस का इस तरह मजाक उड़ाता या खानेपीने को तरसाता. तब वह तकिए में मुंह छिपा कर बहुत रोती, मगर फिर मां के आने से पहले ही मुंह धो कर मुसकराने का नाटक करने लगती कि कहीं मां ने उस के आंसू देख लिए तो वे बहुत दुखी हो जाएंगी और वे भी उस के साथ रोने लगेंगी, जो वह हरगिज नहीं चाहती थी.
एकाध बार उस ने गुरुजी से, परिवार से मिलने वाले इन कष्टों का जिक्र करना चाहा, परंतु गुरुजी ने हर बार किसी न किसी बहाने से उसे चुप करा दिया. वह समझ गईर् कि सारी दुनिया की तरह गुरुजी भी बलवान के साथी हैं. सो, उस ने उन के आगे हाथ जोड़ना बंद कर दिया. अब वह सिर्फ अपनेआप पर भरोसा करती थी. प्यासे कौवे की कंकड़ डालडाल कर पानी को ऊपर लाने की जो कहानी उस ने पढ़ी थी, उसी को उस ने अपना मूलमंत्र बना लिया था. उस ने तय कर लिया था कि जीवन में उसे कुछ बड़ा करना है, बड़ा बनना है, जिस के लिए मेहनत जरूरी थी. वह मेहनत से कभी डरी नहीं, फिर चाहे कितनी बार उस के अपनों ने ही उसे नीचे धकेलने की कोशिश क्यों न की हो.
जब वह छोटी थी, तब इन सब बातों से अनजान थी. मगर जैसेजैसे बड़ी होती गई, उसे सारी बातें समझ में आने लगीं. और इस सब का कुछ ऐसा असर हुआ कि वह अपनी उम्र के हिसाब से जल्दी व ज्यादा ही समझदार हो गई.
उस की मेहनत व लगन रंग लाई और एक दिन वह बहुत बड़ी सरकारी अफसर बन गई. गाड़ीबंगला, नौकरचाकर, दुनिया के ऐशोआराम अब सबकुछ उस के पास थे. उस दिन मांबेटी एकदूसरे के गले लग कर इतना रोईं, इतना रोईं कि पत्थरदिल हो चुके मामामामी की भी आंखें भर आईं. नानी भी बहुत खुश थीं और अपने पूरे कुनबे को फोन कर के उन्होंने बड़े गर्व से यह खबर सुनाई.
वे सभी लोग जो वर्षों से उस को और मां को इस परिवार पर एक बोझ समझते थे, ससुराल से निकाली गई, मायके में आ कर पड़ी रहने वाली समझ कर शकभरी निगाहों से देखते थे, और उन्हें देखते ही मुंह फेर लेते थे, आज उन दोनों की प्रशंसा करते थक नहीं रहे थे. उस को अपनी ‘बिटिया रानी’ बुला रहे थे. मामामामी भी इन से अलग नहीं थे. उन्होंने तो उस के अफसर बनने का पूरा क्रैडिट ही स्वयं को दे दिया था और गर्व से इतराते फिर रहे थे.
अगले भाग में पढ़ें- तुम भी मां…’ कहतेकहते शिखा रो पड़ी.