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बैठक में बैठी शिखा, राहुल के खयालों में खोई हुई थी. मंदमंद बहती हवा, खिड़की से भीतर आ कर उस के खुले हुए लंबे बालों की लटों से अटखेलियां कर रही थी. वह नहाने के बाद तैयार हो कर सीधे यहीं आ कर बैठ गई थी. उस का रूप उगते हुए सूरज की तरह बहुत ही खूबसूरत लग रहा था. सुनहरे गोटे की किनारी वाली लाल साड़ी, हाथों में ढेर सारी लाल चूडि़यां, माथे पर बड़ी सी बिंदी और मांग में चमकता हुआ लाल सिंदूर मानो सीधेसीधे सूर्य की लाली को चुनौती दे रहे थे.

घर के सब लोग सो रहे थे मगर शिखा को रातभर नींद नहीं आई थी. शादी के बाद वह पहली बार मायके आईर् हुई थी पैर फेरने. आज राहुल यानी उस का पति उस को वापस लिवाने आने वाला था. वह बहुत प्रसन्न थी.

उस ने एक भरपूर नजर बैठक में घुमाई. उसे याद आ रहा था वह दिन जब वह बहुत छोटी सी थी और अपनी मां के पल्लू को पकड़े हुए, सहमी सी, दीवार के कोने में घुसी जा रही थी. नानाजी यहीं दीवान पर बैठे अपनी रोबदार आवाज में अपना फैसला सुना रहे थे, ‘माला अब अपनी बच्ची के साथ यहीं रहेगी, हम सब के साथ. यह घर उस का भी उतना ही है, जितना तुम सब का.’ अपने बेटेबहुओं की तरफ देखते हुए उन्होंने यह कहा था.

वे आगे बोले थे, ‘यह सही है कि मैं ने माला का विवाह उस की मरजी के खिलाफ किया था क्योंकि जिस लड़के को वह पसंद करती थी, वह हमारे जैसे उच्च कुल का नहीं था, परंतु जयराज (शिखा के पिता) के असमय गुजर जाने के बाद उस की ससुराल वालों ने उस के साथ बहुत अन्याय किया. उन्होंने जयराज के इंश्योरैंस का सारा पैसा हड़प लिया. और तो और, मेरी बेटी को नौकरानी बना कर दिनरात काम करवा कर बेचारी का जीना हराम कर दिया है.

‘मुझे पता नहीं था कि दुनिया में कोई इतना स्वार्थी भी हो सकता है कि अपने बेटे की आखिरी निशानी से भी इस कदर मुंह फेर ले. मैं अब और नहीं देख सकता. इस विषय में मैं ने गुरुजी से भी बात कर ली है और उन की भी यही राय है कि माला बिटिया को उन लालचियों के चंगुल से छुड़ा कर यहीं ले आया जाए.’

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एक पल ठहर कर वे फिर बोले, ‘अभी मैं जिंदा हूं और मुझ में इतनी सामर्थ्य है कि मैं अपनी बेटी और उस की इस फूल सी बच्ची की देखभाल कर सकूं. मैं तुम सब से भी यही उम्मीद करता हूं कि तुम दोनों भी अपने भाई होने का फर्ज बखूबी अदा करोगे.’

यह कहते हुए नानाजी ने बड़े प्यार से उस का हाथ पकड़ कर उसे अपनी गोदी में बिठा लिया था. उस वक्त वह अपनेआप को किसी राजकुमारी से कम नहीं समझ रही थी. घर के सभी सदस्यों ने इस फैसले को मान लिया था और उस की मां भी घर में पहले की तरह घुलनेमिलने का प्रयत्न करने लगी थीं. मां ने एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली थी. इस तरह से उन्होंने किसी को यह महसूस भी नहीं होने दिया कि वे किसी पर बोझ हैं.

नानाजी व नानी के परिवार की अपने कुलगुरु में असीम आस्था थी. उन के घरपरिवार में उन गुरुजी का बहुत मानसम्मान था. सब के गले में एक लौकेट में उन गुरुजी की ही तसवीर रहती थी. कोई भी बड़ा निर्णय लेने के पहले गुरुजी की आज्ञा लेनी आवश्यक होती थी. शिखा ने बचपन से ही ऐसा माहौल देखा था, सो वह भी बिना कुछ सोचेसमझे उन को ही सबकुछ मानने लगी थी. अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद उस की मां कुछ वक्त गुरुजी की तसवीर के सामने बैठा करती थीं. कभीकभी वह भी मां के साथ बैठती. उस की ख्वाहिश थी कि वह इतनी बड़ी अफसर बन जाए कि वह अपनी मां को वे सारे सुख और आराम दे सके जिन से वे वंचित रह गई हैं.

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खट की आवाज के साथ शिखा की तंद्रा भंग हो गई. उस ने मुड़ कर देखा, तेज हवा के कारण एक खिड़की अपने कुंडे से निकल कर बारबार चौखट पर टकरा रही थी. उठ कर शिखा ने उस खिड़की पर वापस कुंडा लगाया. आंगन में झांका तो शांति ही थी, घड़ी में देखा तो सुबह के 6 बज रहे थे. सब अभी सो ही रहे हैं, यह सोचते हुए वह भी वहीं सोफे पर अधलेटी हो गई. उस का मन फिर अतीत की ओर भागने लगा.

जब तक नानाजी जिंदा रहे, उस घर में वह राजकुमारी और मां रानी की तरह रहीं. मगर यह सुख उन दोनों की जिंदगी में बहुत अधिक दिनों के लिए नहीं लिखा था. एक वर्र्ष बीततेबीतते अचानक ही एक दिन हृदयगति रुक जाने के कारण नानाजी का देहांत हो गया. सबकुछ इतनी जल्दी घटा कि नानी को बहुत गहरा सदमा लगा. अपनी बेटी व नातिन के बारे में सोचना तो दूर, उन्हें अपनी ही सुधबुध न रही. वे पूरी तरह से अपने बेटों पर निर्भर हो गईं. हालात के इस नए समीकरण ने शिखा और उस की मां माला की जिंदगी को फिर से वापस, कभी न खत्म होने वाले दुखों के द्वार पर ला खड़ा किया.

नानाजी के असमय देहांत और नानीजी के डगमगाते मानसिक संतुलन ने जमीनजायदाद, रुपएपैसे, यहां तक कि घर के बड़े की पदवी भी मामा लोगों के हाथों में थमा दी. अब घर में जो भी निर्णय होता, वह मामामामी की मरजी के अनुसार होता. कुछ वक्त तक तो उन निर्णयों पर नानी से हां की मुहर लगवाई जाती रही. उस के बाद वह रस्म भी बंद हो गई. छोटे मामामामी बेहतर नौकरी का बहाना बना कर अपना हिस्सा ले कर विदेश जा कर बस गए. अब बस बड़े मामामामी ही घर के सर्वेसर्वा थे.

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नानाजी के रहते तो मामी ही सुबहशाम रसोई का काम देखती थीं. मां, जितना संभव होता, उन का हाथ बंटातीं और फिर शिखा को ले कर स्कूल निकल जातीं. इसी प्रकार रात का खाना भी मिलजुल कर बन जाता था. परंतु नानाजी के गुजर जाने के बाद धीरेधीरे मामी का रसोई में जाना कम होता जा रहा था. समय के साथ मामामामी का रवैया भी उस के और उस की मां के प्रति बदलने लगा था. अब मां का अपनी नौकरी से बचाखुचा वक्त रसोई में बीतने लगा था. मां ही सुबह उठ कर चायनाश्ता बनातीं. उस का और अपना टिफिन बनाते वक्त कोई न कोई नाश्ते की भी फरमाइश कर देता, जिसे मां मना नहीं कर पाती थीं.

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