लेखिका-अर्चना सक्सेना
सुबह के 9 बज चुके थे. सुमित्रा डाइनिंग टेबल की कुरसी पर बैठ कर मटर छील रही थीं. सब्जी काटनेछीलने के लिए यही जगह भाती है उन्हें, कमर भी सीधी रहती है और सब्जियां भी आराम से सामने फैला कर रख पाती हैं.
अपनी और सुमित के पापा दिनेशजी की चाय बना कर बिसकुट के साथ ले चुकी थीं. आजकल के बच्चे तो कुकीज कहते हैं और उन्हें भी सिखाते हैं, पर सुमित्रा को तो जैसी आदत है वह वही बोलना पसंद करती हैं.
अब इस उम्र में क्यों वह अपनी आदतें बदलें? इतने में घंटी बजी तो उन्होंने पति को आवाज दी. “अरे सुनो, देखना तो कौन आया इतनी सुबह? लक्ष्मी तो छुट्टी वाले दिन 10 बजे के बाद ही आती है.” दिनेशजी ने दरवाजा खोला, तो पड़ोस की कांता भीतर तक ही आ गई.
“अरे सुमित्रा सुबह से काम में लग जाती हो. छुट्टी वाले दिन तो बहू को जिम्मेदारी दिया करो. 9 बज चुके हैं, उठी नहीं वह अभी? भई बड़ी छूट दे रखी है तुम ने.””अरे 2 दिन ही तो मिलते हैं छुट्टी के. जरा देर तक सो लेती है. नहीं तो रोज ही सुबह से भागदौड़ लगी रहती है उस की भी,” सुमित्रा ने खिसिया कर कहा.
“रहने दो. सब दिखाई देता है मुझे. रोज भी तुम ही लगी रहती हो घर के कामों में. शनिवार, रविवार को तुम भी आराम किया करो,” कांता ने अपनापन दिखाते हुए कहा कि तभी उस की निगाहें दिनेशजी से जा टकराईं. उन की आंखों में क्रोध स्पष्ट था.
कांता ने तुरंत बात बदलते हुए कहा, “अच्छा छोड़ो, मैं तो यह चाबी देने आई थी. हम लोग बाहर जा रहे हैं. आतेआते रात हो जाएगी. लक्ष्मी आए तो उस से काम करवा लेना प्लीज. मैं ने जल्दी बुलाया था आज, पर वह बोली कि सुमित्रा भाभी के घर 11 बजे जाना है, तभी करूंगी आप का भी,” कह कर कांता ने चाबी पकड़ाई और दिनेशजी को नमस्ते करते हुए निकल गई.
उस के जाते ही दिनेशजी बड़बड़ाए, “मुझे बिलकुल पसंद नहीं हैं यह कांता भाभीजी. दूसरों के घर में आग लगा कर तमाशा देखते हैं ऐसे लोग. तुम भी जरा दूरी रखा करो.””पर, गलत क्या कह कर गई है वह? क्या यह सच नहीं है कि 9 बजे तक बहू सो रही है और मैं काम में लगी हूं? पर, तुम्हें ये कभी दिखाई देता ही नहीं. बस बिना वजह पूरे घर ने लाड़ पर चढ़ा कर रखा हुआ है,”
चिढ़ कर सुमित्रा ने उत्तर दिया.”तो तुम से कौन कहता है जल्दी उठने को? तुम अपने मन से उठती हो और अपने मन से ही काम करती हो. और नीति कामकाजी लड़की है. अगर 2 दिन देर से उठती है तो क्या गलत है? रोज तो तुम से भी पहले उठ कर जो बन पड़ता है कर के औफिस जाती है न?”
“तो ये भी अहसान है मुझ पर? नौकरी करती है तो अपने लिए. मैं रखती हूं क्या उस की कमाई?””तो घरेलू लड़की ढूंढ़ लेती न? तब क्यों कामकाजी चाहिए थी? तब तो जमाने को दिखाना था कि बड़ी आधुनिक सोच वाली हो. और अब वही आम दकियानूसी सास बन रही हो.””हां… हां, अगर थोड़ाबहुत अनुशासन की उम्मीद करने को दकियानूसी सोच कहते हैं, तो मैं दकियानूसी ही भली हूं. आप बनिए आधुनिक.”
आज दिनेशजी भी हार मानने को तैयार नहीं थे, फिर बोल पड़े, “अगर अनुशासन है तो सब के लिए एक सा होना चाहिए. तुम्हारा बेटा अब तो फिर भी 9 या साढ़े 9 बजे तक बहू के साथ उठ कर आ जाता है. पहले तो 11 बजे से पहले उठता ही नहीं था. और राधिका तो कभी भी नहीं उठती जल्दी.”
“मां के घर ही मनमानी कर सकती है. कल को वह ससुराल जाएगी तो अपनेआप घर संभालेगी,”सुमित्रा ने फौरन तरफदारी की.”हां, ये तो है… अगर तुम्हारे जैसी सास उसे भी मिली तो रो के या हंस के संभालना ही पड़ेगा,” दिनेशजी ने फौरन चुटकी ली.इतने में सुमित के कमरे का दरवाजा खुला और नीति मुसकराती हुई बाहर आई. “गुडमोर्निंग मम्मा, गुडमोर्निंग पापाजी. 1-1 चाय और लेंगे आप दोनों?”
दिनेशजी ने फौरन हामी भरी. सुमित्रा मना करती कि तभी सुमित भी बाहर आ गया और बोला, “सब की बना लो. तुम्हारे हाथ की चाय को कौन मना कर सकता है?” अब तो सुमित्रा सचमुच मना करना चाहती थीं, पर बेटे की खातिर चुप रह गईं.
चाय पीतेपीते ही नीति ने नाश्ते की तैयारी कर ली.आज सब को गरमागरम पनीर के परांठे मिलने वाले थे नाश्ते में. नीति हर छुट्टी पर कुछ न कुछ अलग बनाती ही थी. कामकाज में सुमित्रा जितनी दक्ष न सही, पर फिर भी होशियार ही थी.
सुमित्रा अब भले ही अपने सर्वगुण संपन्न होने का दावा कर लें, पर सच तो ये है कि गोल रोटी बेलना उन्हें उन की सास ने ही सिखाया था. अब यह अलग बात है कि हर काम सिखाते हुए तानेउलाहने भी दिल खोल कर दिए उन्होंने कि मां ने कुछ सिखा कर नहीं भेजा. खैर जो भी हो, उम्र के साथ अनुभवी होती चली गई वह. परंतु वह तो बहू से अधिक कुछ कह भी नहीं पातीं. पति, पुत्र और बेटी तीनों ही उस की तरफ हो जाते हैं. ज्यादा से ज्यादा मुंह फुला सकती हैं, और वही अकसर करती भी हैं. उस पर भी सब को परेशानी है. बेटा तो फिर भी खामोश रहता है, पर राधिका तो मां को ही समझाने बैठ जाती है. और पति की तो पूछो ही मत, ऐसे नाराजगी जाहिर करते हैं, अपनी मां के ताने बिलकुल भूल गए.
तब तो मां को रोकने की कभी हिम्मत नहीं दिखाई. और बहू में तो कोई दोष दिखाई ही नहीं देता. सारी कमियां भी पत्नी में हैं और सारा रौब भी पत्नी पर ही चलता है.नाश्ता तैयार हो गया था. पनीर के परांठे वाकई स्वादिष्ठ थे. सब नीति की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे. बस सुमित्रा ही शांति से खा रही थीं. नीति ने आशा भरी नजरों से उन्हें देखा कि वह भी कुछ कहें, पर वह चुपचाप खाने में मगन थीं.
जब बहुओं की प्रशंसा की बारी आती है तो सासें आमतौर पर कंजूस हो ही जाती हैं. वहीं जब सवाल बेटियों का हो तो अवगुणों में भी गुण तलाश ही लेती हैं ये.नीति समझदार थी. कभी किसी से कुछ न कहती. मां के खिलाफ सुमित से भी कभी कुछ नहीं कहा उस ने, फिर भी बेवजह के इस रूखेपन से कभीकभी दिल भर आता था उस का.
दिनेशजी के पैतृक नगर से उन के फुफेरे भाई की बेटी के विवाह का निमंत्रण आया. उन की बुआ अभी जीवित थीं और उन्होंने सपरिवार आने का आग्रह किया था. सुमित एक महीने के लिए विदेश गया हुआ था. सुमित्रा का रक्तचाप पिछले कुछ दिनों से बढ़ा हुआ चल रहा था. उन्होंने जाने में असमर्थता व्यक्त की. किसी को तो उन के पास रुकना ही था तो नीति ने सहर्ष रुकना स्वीकार किया.
वैसे भी जिस दिन निकलना था, उस दिन उस के औफिस में जरूरी मीटिंग थी और अगले ही दिन कोई जरूरी प्रेजेंटेशन भी. दिनेशजी के साथ राधिका लखनऊ चली गई. 3 दिन
दिन के तो विवाह के कार्यक्रम ही थे. इतने दिनों के बाद अपने शहर जा रहे थे दिनेशजी, इसलिए सप्ताहभर का कार्यक्रम बनाया गया. राधिका तो वैसे भी लखनऊ से चिकनकारी की खरीदारी को ले कर उत्साहित थी.