जब रीतेश ने बंबई में अपना तबादला होने का समाचार अल्पना को सुनाया, वे अनमनी सी हो उठीं. ऐसा नहीं कि तबादला कोई पहली बार हुआ हो. पति के 20 वर्ष के कार्यकाल में न जाने कितनी बार उन्होंने सामान बांधा था, नई गृहस्थी जमाई थी, दरवाजों के परदे खिड़की पर छोटे कर के टांगे थे और खिड़कियों के परदे जोड़ कर दरवाजों पर.
अब तो यह सब करने की भी आवश्यकता नहीं थी. रीतेश मुख्य निदेशक थे अपनी कंपनी के. सभी सुखसुविधाएं मुहैया कराना अब कंपनी के जिम्मे था. फिर तो कोई खास परेशानी ही नहीं थी. बस एक प्रकार का डर था जिस ने उन के मनमस्तिष्क को बुरी तरह घेर रखा था, वह था बेटे राजेश और वधू नेहा के साथ रहने का.
वैसे अपने बच्चों के साथ रहने की परिकल्पना अपनेआप में कितनी सुखदायक है, विशेषकर उन मातापिता के लिए जिन्होंने अपने जीवन का हर पल अपने बच्चों और परिवार के प्रति समर्पित किया हो. लेकिन नई दुनिया के नए अनुभवों ने उन्हें चिंताग्रस्त कर दिया था. आज के भौतिकवादी युग में उन के भावुक हृदय ने एक बात महसूस की थी कि रिश्तों की खुशबूभरी परंपरा लगभग समाप्त हो गई है.
दो ही बच्चे थे उन के. बेटी क्षितिजा, जिस के पति डाक्टर हैं और बेटा राजेश, जो एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में इंजीनियर है. कितना संघर्ष और परिश्रम किया था उन्होंने उसे पढ़ानेलिखाने और सुसंस्कृत बनाने में. सुबह 5 बजे से ले कर रात 11 बजे तक का मशीनी जीवन बच्चों के टिफिन तैयार करने, स्कूल की पोशाक पर इस्तिरी करने, सुबह बस स्टौप ले जाने और दोपहर बस स्टौप से वापस लिवा लाने में वक्त कब और कैसे सरक गया, कुछ पता ही न चला.