वे चिढ़ गई थीं. दहेज न हुआ, नुमाइश हुई. इन औरतों की छींटाकशी से बेखबर नहीं थीं वे जो इतनी बचकानी हरकत करतीं. आज तक अपना अपमान नहीं भूल पाई थीं वे, जो उन का दहेज देखने पर इनऔरतों ने किया था. बड़ी जीजी नाराज थीं कि बहू के हाथ का भोजन नहीं चखा था उन्होंने अब तक. वैसे यह भी कुछ बेकार का आरोप था.
वे तो मन ही मन डर रही थीं कि कालेज से निकली लड़की रसोई में जा कर दो पल खड़ी न हो सकी तो? खुद उन की बिटिया ही कितना कर पाती है? पूरी रसोई कभी संभाली हो, याद नहीं पड़ता उन्हें. इसी चखचख से बचने और बहू को बचाने के लिए उन्हें हनीमून पर भेज दिया था उन्होंने. वापस लौटे तो राजेश को बंबई जाना था.
मन में इच्छा हुई कि बहू को अपने पास रख लें कुछ दिन. पर फिर सोचा, नयानया ब्याह हुआ है उन का, खेलनेखाने के दिन हैं. एक बार जिम्मेदारी बढ़ी तो इंसान पिंजरे में कैद पक्षी के समान हो जाता है. अगर फड़फड़ाना भी चाहे तो पिंजरे की तारें उसे आहत करती हैं.
बहू और बेटे ने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया तो फिर अकेलापन सालने लगा था. अगर यहीं होते मेरे पास तो कितना अच्छा होता. लेकिन फिर सोचतीं, अच्छा ही है कि दूर है, कम से कम प्यार तो है, अपनत्व तो है, वरना एक ही घर में रहते हुए भी लोगों के मुंह इधरउधर ही रहते हैं. किसी की बहू घर छोड़ कर चली गई, कहीं सास ने आत्महत्या कर ली, यही तो घरघर की कहानी है जिसे उन्हें दोहराने से डर लग रहा था.
उस दिन दफ्तर से रीतेश लौट कर आए तो चाय की चुस्की लेते हुए बोले, ‘‘अल्पना, कल से सामान बांधना शुरू कर दो. और देखो, कुछ भारीभरकम ले जाने की जरूरत नहीं. राजेश के घर में किसी भी चीज की कमी नहीं है. जरूरत भर का सामान ले लेंगे. 3 साल बाद वापस दिल्ली लौटना ही है.’’
पति के आदेश पर वह जैसे यथार्थ में लौट आई थीं. तो क्या रीतेश ने निश्चय कर लिया है बेटे के साथ रहने का? कुछ असमंजस, कुछ ऊहापोह की स्थिति में वह चुपचाप बैठी रहीं. फिर साहस बटोर कर पति से पूछा, ‘‘सुनो, कंपनी की तरफ से तुम्हें कार और फ्लैट तो मिलेगा? है न?’’
‘‘हांहां, हमारी कंपनी के कुछ फ्लैट कोलाबा में हैं.’’
‘‘तो क्यों न हम वही चल कर रहें?’’
‘‘कैसी बातें करती हो? राजेश के वहां रहते हुए हम अलग कैसे रह सकते हैं? लोग क्या कहेंगे?’’
‘‘तो इस में बुरा क्या है? वैसे भी एकाध साल में अलग रहने की नौबत तो आ ही जाती है. क्यों न पहले से सावधानी बरतें?’’
‘‘यह मां का दिल कह रहा है या स्वयं का अहं और स्वाभिमान?’’
‘‘तुम चाहे कुछ भी समझो, पर बात को नकारा नहीं जा सकता. आजकल सामंजस्य स्थापित कितने घरों में हो रहा है?’’ वे बोलीं.
रीतेश ने उन्हें समझाना चाहा, ‘‘देखो, जब सासबहू अनपढ़ हों तो बात अलग है किंतु जब तुम दोनों ही शिक्षित हो फिर यह समस्या क्यों आएगी ?’’
‘‘विचारों का विरोधाभास, पीढ़ी का अंतराल, व्यक्तिगत स्वतंत्रता में बाधा आदि कई ऐसे प्रश्न हैं जिन पर इन संबंधों की इमारत खड़ी है.’’
‘‘तुम स्वयं को सास नहीं, नेहा की मां समझना अल्पना, और बेटे से अपेक्षाएं कम रखना तो…’’
‘‘और अगर वह मेरी बेटी न बनना चाहे तो?’’ उन की बात बीच में काट कर अल्पना बोलीं तो रीतेश निरुत्तर हो गए थे. यों दुनिया के रंग को कोई बंद आंखों से नहीं देखते थे वे भी. फिर भी अपने बच्चों से दूर रहना उन्हें तर्कसंगत भी नहीं लग रहा था.
कुछ देर और भी वादविवाद चला पर सब अकारथ ही गया. रीतेश कंपनी के फ्लैट में रहने को तैयार हो गए थे. लेकिन अभी कुछ दिनों तक वहां नहीं रहा जा सकता था क्योंकि जो मुख्य प्रबंधक वहां रह रहे थे, बच्चों की परीक्षा के कारण उसे खाली कर पाने में असमर्थ थे. अत: उस समय तक अल्पना बहूबेटे के साथ रहने को सहर्ष तैयार हो गई थीं.
अल्पना ने अपनी गृहस्थी समेटनी शुरू कर दी थी. कुछ ही दिन रह गए बंबई जाने में. बाजार जा कर बेटी और बहू के लिए कांजीवरम की साडि़यां ले आई थीं. और भी कई प्रकार के उपहार व दुर्लभ वस्तुएं जो बंबई में नहीं मिलतीं, ले कर आई थीं वे. मन में असीम उत्साह था पर आशंकित भी थीं. बेटेबहू के साथ रह कर जिस रिश्ते को रेशमी धागे में पिरोए मोती की लडि़यों की तरह उन्होंने सहेज कर रखा था अब तक, कहीं उलझ न जाए. क्योंकि प्रेम का धागा एक बार टूट जाता है तो उस में गांठ तो पड़ ही जाती है.
हवाईजहाज ने सांताक्रूज हवाई अड्डे को छुआ तो उन की व्याकुल नजरें अपने बच्चों को ढूंढ़ रही थीं. कुछ औपचारिकताएं निभाने के बाद वे बाहर आ गए थे. दूर से ही नटखट क्षितिजा का चेहरा दिखा तो पिता ने गले से लगा लिया था बिटिया को.
अल्पना राजेश और नेहा के पास आ गई थीं. लगा, बेटी की तरह गले लगने में कुछ हिचक सी महसूस कर रही थी नेहा पर उस हिचकिचाहट को उन्होंने समाप्त कर दिया. बहू को गले लगाकर स्नेहचुंबन माथे पर अंकित कर दिया उन्होंने.
घर पहुंच कर कितनी देर तक सब बतियाते रहे थे. कुछ यहांवहां की बातें कर के आखिर बात फिर मुख्य मुद्दे पर अटक गई. राजेश बारबार पिता को वहां रहने का आग्रह करता और वे मन ही मन डर जातीं कि कहीं पति कमजोर न पड़ जाएं. लेकिन रीतेश ने बड़ी ही समझदारी से बेटे की बात टाल दी थी. वे बोले, ‘‘बांद्रा से कोलाबा काफी दूर है बेटा. इतनी लंबी ड्राइविंग से थक जाऊंगा मैं.’’
अल्पना ने चैन की सांस ली और राजेश निरुत्तर हो गया था. काफी चहलपहल थी. सभी बातों में मशगूल थे. नेहा चाय बनाने गई तो उन्होंने क्षितिजा को बहू के पीछेपीछे भेज दिया था और खुद उठ कर थैले से उपहार निकाल लाई थीं. नेहा ने बहुत खुश हो कर साड़ी स्वीकार की थी. हां, क्षितिजा कभी रंग पर अटक जाती तो कभी पिं्रट पर. हमेशा से ही ऐसी है नकचढ़ी. क्या मजाल जो कुछ भा जाए उसे.
रीतेश को बच्चों ने घोड़ा बना दिया था और नेहा और क्षितिजा बंबई की समस्याओं के बारे में बता रही थीं. रात्रि का भोजन खा कर क्षितिजा और निखिल जब चले गए तो रीतेश तो सोफे पर ही अधलेटे से हो गए थे. उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगा था. बहू साथ बैठने में कुछ कतरा रही थी. पति को कुरतापजामा पकड़ा कर खुद भी वे सोने की तैयारी करने लगी थीं.