पूर्व कथा
पुरवा का पर्स चोर से वापस लाने में सुहास मदद करता है. इस तरह दोनों की जानपहचान होती है और मुलाकातें बढ़ कर प्यार में बदल जाती हैं. सुहास पुरवा को अपने घर ले जाता है. वह अपनी मां रजनीबाला और बहन श्वेता से उसे मिलवाता है. रजनीबाला को पुरवा अच्छी लगती है. उधर पुरवा सुहास को अपने पिता से मिलवाने अपने घर ले आती है तो उस के पिता सहाय साहब सुहास की काम के प्रति लगन देख कर खुश होते हैं.
सुहास की बहन श्वेता को देखने लड़के वाले आते हैं. इंजीनियर लड़के गौरव से श्वेता का विवाह तय हो जाता है. मिठाई के डब्बे के साथ बहन की सगाई का निमंत्रण ले कर सुहास सहाय साहब के घर जाता है. घर पर बीमार सहाय साहब का हालचाल पूछने उन के मित्र आए होते हैं. सहाय साहब सुहास की तारीफ करते हुए सब को बताते हैं कि वह उसे मोटरपार्ट्स की दुकान खुलवा रहे हैं. सुहास अपनी तारीफ सुन कर खुश होता है.
अब आगे…
पुरवा अंदर से सारी बातें सुन रही थी. उसे देखते ही बोली, ‘‘मैदान मारने में बहुत होशियार हो.’’
‘‘यह तो भूमिका है सब से बड़ा मैदान मारने की,’’ सुहास ने धीरे से कहा और एक आंख दबा दी, फिर बोला, ‘‘आंटी कहां हैं?’’
‘‘मम्मा रसोई में हैं.’’
‘‘यह मिठाई किस के लिए?’’ पुरवा ने उत्सुकता से पूछा.
‘‘अंकलआंटी के लिए.’’
पुरवा तुनक कर बोली, ‘‘और मैं?’’
‘‘तुम्हारे लिए तो स्वयं मैं ही खड़ा हूं.’’
‘‘अच्छा चलो, बातें न बनाओ, शरारती कहीं के.’’
पुरवा की मम्मी को देखते ही सुहास अभिवादन में झुक गया. डब्बा उन की तरफ बढ़ा कर बोला, ‘‘आंटी, मेरी बहन का विवाह तय हो गया है. अगले सोमवार को सगाई है और आप सब को आना है. पुरवा, तुम्हें भी.’’
‘‘बधाई हो. हम सब अवश्य आएंगे. बस, इन की तबीयत सही रहनी चाहिए,’’ पुरवा की मां ने चिंता से कहा.
‘‘आंटी, आप चिंता न कीजिए. मेरे पारिवारिक डाक्टर अखिल बंसल हैं. उन्हें आज ही ले कर आऊंगा. उन का हाथ बहुत अच्छा है, अंकल एकदम ठीक हो जाएंगे.’’
सुहास ने फिर से आने की व्यवस्था कर ली थी. हंस कर उस ने पुरवा को देखा और बोला, ‘‘अच्छा आंटी, अभी चलता हूं. बंसल साहब को ले कर आऊंगा.’’
सुहास मुसकराता हुआ चल दिया.
सुहास ने अपने व्यवहार से धीरेधीरे सहाय परिवार का मन जीत लिया. चूंकि सहाय का बेटा विदेश में था अत: सुहास उस घर में एक पुत्र जैसा पद प्राप्त कर चुका था. कभीकभी सहाय साहब अपनी पत्नी से कहते भी थे, ‘‘संगीता, हम लोग अपनी पुरु के लिए इतना अच्छा लड़का कभी तलाश नहीं सकते थे. घरवर सब अच्छा है. थोड़ा काम सीख जाए फिर मैं अपनी बेटी का पैगाम ले कर जाऊं.’’
‘‘हां, मैं भी आजकल यही सब सोचती रहती हूं. कितने प्यार से मांमां कहता मेरे कदमों में झुक जाता है,’’ वह कुछ सोच कर बोलीं, ‘‘उस की बहन की सगाई पर तो जाना ही पड़ेगा.’’
‘‘अरे, हां, यह अच्छा अवसर है उस के परिवार को देखनेसमझने का,’’ सहाय साहब को जैसे राह सूझ गई.
श्वेता की सगाई पर बहुत रौनक थी. कुछ नजदीकी व कुछ दूर के भी जानने वाले वहां मौजूद थे. सुहास को पुरवा व उस के मातापिता की बहुत व्याकुलता से प्रतीक्षा थी. जैसे ही वे लोग आए, सुहास मन ही मन चहक उठा और खुद आगे बढ़ कर उन का स्वागत किया.
सहाय साहब बहुत उत्सुकता से मकरंद वर्मा परिवार से मिल रहे थे. पुरवा को सब ने इस तरह हाथोंहाथ लिया जैसे वह भी उस घर की एक सदस्य हो. सहाय दंपती को यह बहुत अच्छा भी लगा.
‘‘आज बहुत प्यारी लग रही हो, पुरवा, नजर न लगे,’’ रजनी ने प्यार से कहा तो पुरवा लजा गई.
रजनी ने संगीता से कहा, ‘‘आप की बेटी जितनी समझदार है उतनी सुंदर भी है. हम सब को पसंद है.’’
संगीता ने गद्गद भाव से रजनी का यह बयान सुना.
पुरवा के पिता ने भी सुना था और मन ही मन सोच रहे थे, घरवर दोनों अच्छे हैं. अब देखना कैसे, सुहास को मैं एक अच्छा व्यापारी बनने में सहायता करता हूं.
उसी समय श्वेता की ससुराल के लोग आ गए. सुंदर व समझदार गौरव को जिस ने भी देखा प्रशंसा की. सहाय साहब ने भी प्रशंसा में वर्माजी से कहा था, ‘‘बहुत अच्छा चुनाव है आप का. आप की बेटी का सगाई समारोह देख कर मुझे भी अब अपनी बेटी के विवाह की चिंता होने लगी है.’’
वर्मा साहब ने बड़े अपनत्व से उन के कंधे पर हाथ रखा और हंसते हुए बोले, ‘‘होता है, ऐसा ही होता है. आप की बेटी बहुत स्मार्ट व सुंदर है. आप क्यों चिंता करते हैं.’’
समारोह बहुत साधारण ढंग से मधुर वातावरण में संपन्न हो गया. बहुत बड़ा परिवार था श्वेता की ससुराल का. 4 भाई व 2 बहनें. बाबादादी व एक विधवा बूआ. पुरवा ने श्वेता के कान में धीरे से कहा, ‘‘लगता है परिवार नियोजन वाले इन के घर कभी नहीं आए होंगे.’’
श्वेता धीरे से मुसकरा दी और फुसफुसा कर बोली, ‘‘आए तो हमारे घर भी नहीं थे, 4 हैं, ध्यान रखना.’’
पुरवा उस की चुहलबाजी पर धीरे से हंस पड़ी, कितनी तेज है श्वेता, नहले पर दहला मारती है.
सगाई समारोह में सागर व बेला भी आए थे और दूर ही दूर से सुहास को पुरवा व सहाय साहब के पीछे भागते हुए देख हंस रहे थे. सागर ने बेला से कहा, ‘‘नकवी साहब ने खबर तो ठीक ही दी थी.’’
‘‘यह उम्र ऐसी ही होती है,’’ बेला ने कहा, ‘‘अपनी भूल गए.’’
‘‘नहीं यार, ऐसे अवसरों पर तो अपना अतीत कुछ अधिक ही जोर मारता है. पर एक बात है.’’
‘‘क्या?’’ बेला ने उत्सुकता से पूछा.
‘‘बहुत मस्त जीव है अपना सुहास. कहीं प्यार को भी तो खेल समझ कर नहीं खेल रहा है,’’ सागर ने गंभीर हो कर कहा.
‘‘हां, सच, एक दिन पकड़ कर इसे ऊंचनीच तो समझानी ही होगी,’’ बेला ने कहा. तभी सगाई की रस्म शुरू हो गई और सभी अतिथि उत्साह से समारोह में शामिल हो गए.
रस्म के बाद भोजन का प्रबंध था. श्वेता और गौरव के नजदीक ही पुरवा और सुहास खड़े थे. गौरव, सुहास से बातें करने में व्यस्त था. श्वेता अपनी प्लेट ले कर पुरवा के निकट आ गई तो पुरवा ने पूछा, ‘‘सब अच्छा लग रहा है न?’’
‘‘हां, पर एक दुख भी है,’’ श्वेता बोली, ‘‘मम्मीपापा अकेले रह जाएंगे.’’
‘‘सुहास तो है न उन के पास,’’ पुरवा ने उदास श्वेता को समझाया.
‘‘एक बात कहूं, पुरवा…’’ श्वेता ने धीरे से कहा, ‘‘अब तुम जल्दी से इस घर में आ कर मेरा स्थान ग्रहण कर लो.’’
पुरवा की आंखों में चमक उभरी पर उस के गाल शरम से लाल हो उठे. उस ने लजाई आंखों से सुहास को देखा. यह सब कैसे अचानक होता गया, वह हैरान थी. क्या सचमुच वह समय आ गया है जब वह भी दुलहन बनेगी?
समय तेजी से गुजरता गया. सुहास ने अपना व्यापार शुरू कर दिया था. 1 महीने तक उस ने दुकान अकेले ही संभाली, फिर एक नौकर रख लिया. वैसे भी एक ही जगह जम कर रह पाना उस के स्वभाव में नहीं था. इन दिनों वह पुरवा से मिलने को व्याकुल रहता. आसपास के घरों में जा कर उन के दुख बांटने को उस का मन छटपटाता.
बहुत जल्दी उसे लगने लगा कि यह तो नौकरी से भी अधिक गहरा बंधन है. कोई छुट्टी नहीं और मालिक होने का कोई दंभ नहीं. फिर वह अपने मन को समझाता, यदि पुरवा को पाना है तो यह सबकुछ करना ही होगा. कोई भी भला परिवार किसी बेकार युवक को अपनी बेटी देना कदापि स्वीकार नहीं करेगा. जबजब वह अपने मन को समझाता, उस का उत्साह बढ़ जाता. सहाय साहब भी उसे उत्साहित करने के लिए कहते, ‘‘छोटे काम से ही एक दिन व्यक्ति अपनी योग्यता व लगन से बहुत बड़ा व्यापारी बनता है.’’
‘‘अंकल, मुझ में योग्यता है या नहीं, यह तो नहीं पता, पर लगन जरूर है एक बड़ा व्यापारी बनने की,’’ सुहास भी उन्हें आश्वासन देता.
‘‘बस, वही जरूरी है, बेटे. एक सफल व्यापारी में साहस, लगन व अच्छे प्रबंध करने के सारे गुण होने आवश्यक हैं. तुम्हारी लगन तुम्हें एक दिन अवश्य मंजिल तक पहुंचाएगी,’’ सहाय साहब की उत्साहजनक बातें उसे काफी आशा बंधातीं.
हालांकि परिश्रमी वह नहीं था फिर भी जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलने की भरसक कोशिश कर रहा था. यह बात सुहास के परिवार के सभी लोग जानते थे कि उस के पास एक कोमल दिल है. दूसरों के दुख से वह बहुत शीघ्र प्रभावित हो जाता है. बस, परिश्रम करने से जी चुराता था. पर अब सब को विश्वास था कि पुरवा को पाने के लिए वह परिश्रम करना भी सीख जाएगा.
सुहास जिस तरह अपने नए वातावरण से लगातार जूझ रहा था वैसे ही पुरवा भी निरंतर व्यस्त थी. उस की परीक्षाएं निकट थीं इसलिए वह सुहास से मिल नहीं पा रही थी. अंध महाविद्यालय भी नहीं जा रही थी.
एक दिन अचानक ही सुहास पुरवा के घर पहुंच गया. वह बैठी नोट्स पलट रही थी. थोड़ी देर पहले ही उस की मम्मी ने कौफी बना कर उसे दी थी, पर पढ़ाई में डूबी होने के कारण वह कौफी पीना भूल गई थी. सुहास पहुंचा तो उसे पता भी नहीं चला कि वह कब आ कर सोफे पर उस के निकट ही बैठ गया है.
सुहास ने कौफी का प्याला उठा कर होंठों से लगाया और हंस कर बोला, ‘‘इसे कहते हैं कि दानेदाने पर लिखा है खाने वाले का नाम.’’
पुरवा ने चौंक कर गरदन उठाई तो वह झट से बोला, ‘‘सौरी, पीने वाले का नाम.’’
पुरवा हंस दी, ‘‘अच्छा है. इस तरह मुझे गरम कौफी मिल जाएगी.’’
‘‘अरे बाबा, फिर तो मैं घाटे में रहूंगा,’’ सुहास ने दुख सा जाहिर करते हुए कहा.
उसी समय पुरवा की मम्मी संगीता भी वहां आ गईं और बोलीं, ‘‘नहीं भई, घाटा कैसा, हम अभी ताजी कौफी बना कर लाते हैं.’’
‘‘मम्मी हों तो ऐसी,’’ सुहास ने कहा और संगीता जैसे ही वहां से हटीं वह पुरवा के नजदीक खिसक आया.
‘‘तुम्हें जरा भी दया नहीं है. फोन भी नहीं किया.’’
‘‘तुम खाली कहां होते हो. अपनी दुकान पर जाने कितनों को बैठाए रहते हो,’’ पुरवा ने कहा.
‘‘बिजनेस है बिजनेस, जितनी जान- पहचान बढ़ेगी उतना ही व्यापार बढ़ेगा. लेकिन उस से तुम्हें क्या?’’
‘‘जब भी फोन करो, तुम्हारे चमचे ही उठाते हैं. तुम्हें उठाने की फुरसत नहीं है तो क्यों करूं फोन,’’ पुरवा ने कृत्रिम क्रोध दिखाते हुए कहा.
‘‘अच्छा बाबा, माफ कर दो अब. मैं ध्यान रखूंगा कि फोन कोई और न उठाने पाए,’’ सुहास उसे मना ही रहा था कि संगीता कौफी ले कर आ गईं. आते ही वह उस के मम्मीपापा के बारे में पूछने लगीं. विवाह की बात छेड़ कर बोलीं, ‘‘अपनी मम्मी से कहना, हमारे योग्य कोई काम हो तो बताएं.’’
‘‘हां आंटी, जरूर बताएंगे.’’
‘‘पुरवा की परीक्षा निकट है इसी से हम लोग नहीं आ पा रहे हैं,’’ संगीता ने स्पष्टीकरण दिया.
उस दिन पुरवा से सुहास की अधिक बातें नहीं हो सकीं इसीलिए उस का मन उचाट हो रहा था. वह दुकान से वापस घर न जा कर सागर के यहां पहुंच गया. बेला बेहद खुश होते हुए बोली, ‘‘आज तुम्हें फुरसत मिल गई. लगता है अब तो सुहास को हमारी याद भी नहीं आती है.’’
‘‘ऐसा नहीं है, भाभी. इतना काम करने की आदत नहीं है न, दुकान से निकलने के बाद थक जाता हूं.’’
‘‘आदत तो डालनी पड़ेगी बच्चे,’’ सागर ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘काम नहीं तो छोकरी नहीं और छोकरी नहीं तो ब्याह भी नहीं.’’
‘‘देखो, इसे डराओ मत,’’ बेला ने सागर को धमकाया, ‘‘ब्याह तो इस का होगा पुरवा से ही. उस के पिता भी दूरदर्शी हैं, व्यापार करने में इस के सहायक वे यों ही थोड़े बन गए हैं.’’
‘‘भाभी, आप ठीक ही कह रही हैं पर देखा जाए तो हम सभी स्वार्थी हैं,’’ सुहास बोला, ‘‘काम की रट तो मैं ने यों ही मजाक में लगाई थी उन्हें प्रभावित करने के लिए ताकि पुरवा का हाथ मांगने में आसानी हो जाए.’’
‘‘लेकिन पुरवा की जगह काम तुम्हारे गले पड़ गया,’’ सागर ने हंस कर कहा.
‘‘हां, सच भाई साहब. अब तो यह एक अग्नि परीक्षा है. इस में से गुजरे बिना पुरवा मिलने वाली नहीं है.’’
‘‘सच ही है. बेकार बैठे युवक को कोई भी अपनी बेटी नहीं देना चाहता,’’ बेला ने कहा.
‘‘वही तो, भाभी,’’ सुहास उछल कर बोला, ‘‘अब दुकान चले न चले, पर मैं बेकार नहीं कहला सकता,’’ सुहास का खिलंदड़ी अंदाज उस के चेहरे पर चमक रहा था.
सागर तब तक गंभीर हो चुके थे. बोले, ‘‘यह विचार भी गलत है सुहास कि तुम ने इस दुकान को अपने पर से बेकारी का लेबल हटाने का बहाना समझ लिया है. अब जो भी काम आरंभ किया है उसे लगन से पूरा करो. जीवन की अनिवार्यता समझ कर स्वीकार करो.’’
सुहास को लगा कि वातावरण कुछ गंभीर हो गया है तो झट से चेहरे की हंसी गायब कर दी और बोला, ‘‘आप लोग ठीक कह रहे हैं भाई साहब. मुझे जीवन की गंभीरता को समझना ही चाहिए.’’
उस दिन घर वापस लौटते समय सुहास को यही लग रहा था कि आज कहीं भी उस का मन नहीं लग रहा है.
घर के निकट पहुंचते ही उसे नकवी चाचा मिल गए. कुछ परेशान से थे. उस ने पूछा, ‘‘क्या बात है, चाचा, आज बहुत परेशान से हैं?’’
‘‘हां, बेटा, अच्छा हुआ तुम मिल गए. मेरी बेटी फातिमा आने वाली है. आधे घंटे में गाड़ी स्टेशन पर पहुंच जाएगी और इधर तुम्हारी चाची की तबीयत बहुत खराब हो गई है. अब डाक्टर के पीछे भागूं या स्टेशन जाऊं,’’ नकवी साहब की चिंता उन के हर हावभाव से झलक रही थी.
सुहास को जैसे उत्साहित होने का बहाना मिल गया. उस के चेहरे पर सेवाभाव तैर उठा. वह बोला, ‘‘आप चाची की चिंता न कीजिए और स्टेशन चले जाइए. मैं डाक्टर को ले कर फौरन पहुंचता हूं और आप के आने तक वहीं रहूंगा.’’
‘‘जियो बेटा, तुम्हारी उम्र लंबी हो,’’ नकवी प्रसन्न हो गए.
सुहास आगे बढ़ा तो अचानक उस के मन में यह विचार कौंधा, ‘आखिर, वह उदास क्यों था? दुकान पर भी काम करता है, यहां भी वही तो करने जा रहा है. फिर इस में ही अधिक खुशी क्यों मिलती है?’ उस के मन ने ही उसे जवाब दिया, ‘यह सेवा है. इस सेवा में लोगों का प्यार और आशीर्वाद मिलता है.’
अपने मन को समझा कर सुहास डाक्टर के साथ नकवी के घर की ओर बढ़ गया.
श्वेता के विवाह को 4-5 दिन ही शेष थे. परीक्षा समाप्त होने के बाद पुरवा सुहास की मां के पास आ जाती थी. कोई कार्य समझ में आता था तो सहायता करती थी. सुहास के भैयाभाभी भी आ गए थे. उन सब को पुरवा का परिचय श्वेता की सहेली कह कर दिया गया था. सुहास को जब सब पुरवा के आसपास मंडराते हुए देखते तो चिढ़ाना शुरू कर देते.
निशांत की पत्नी इला कहती, ‘‘सुहास भैया, लगता है आप की शहनाई भी जल्दी बजवानी पड़ेगी.’’
‘‘मेहरबानी और पूछपूछ,’’ सुहास भी तपाक से कहता.
प्रशांत चिढ़ाता, ‘‘सुना है पुरवा के पिताजी ने ही तुझे व्यापार करवाने का जिम्मा उठाया है.’’
प्रशांत की पत्नी नेहा कहती, ‘‘लड़के को दाना डाल रहे हैं.’’
सुहास ऐसे हंसीमजाक के अवसर पर घबरा कर इधरउधर देखता कि कहीं पुरवा तो आसपास नहीं है. पुरवा समझदार थी. सुहास से दूरदूर ही रहती. वह श्वेता या रजनीबाला के निकट ही रहने का प्रयास करती. रात होते ही सुहास उसे घर छोड़ आता.
सहाय साहब और संगीता गद्गद हो जाते. अकेले में कहते, ‘‘लड़का बहुत अच्छा है. पुरवा के लिए इस से अच्छा वर कहां मिलेगा.’’
‘‘हां,’’ संगीता कहती, ‘‘घर भी अच्छा है. भले लोग हैं.’’
सहाय साहब मंदमंद मुसकराते और सुहास को याद करते हुए कहते, ‘‘अपना बेटा तो परदेस में है, पर जब से सुहास यहां आने लगा है, बेटे की कमी महसूस नहीं होती.’’
सहाय साहब परदेस में बैठे बेटे को याद करते हुए कहते, ‘‘सुनो, पुरवा के विवाह पर अपना मानस तो आएगा न?’’
‘‘क्यों नहीं. बहन की शादी में भी नहीं आएगा तो कब आएगा.’’
संगीता ने एक गहरी सांस भरी और बोलीं, ‘‘आज अगर पारस जीवित होता तो घर में एक पुत्र रहता.’’
फिर दोनों कुछ पल यादों की गहरी घाटी में भटकते रहे, फिर संगीता ने अचानक कहा, ‘‘इस बार मानस जब आएगा तो उस का भी विवाह कर देंगे.’’
‘‘अरे हां, यह तो बहुत दूर की बात सोची तुम ने,’’ सहाय साहब बोले, ‘‘पर एक चिंता है कि अगर उस ने कोई गोरी मेम पसंद कर ली होगी तब…’’ संगीता भी सोच में डूब गईं.
जब दोनों को लगा कि वातावरण अनायास ही गंभीर हो उठा है तो हंसने का प्रयास करते हुए बोले, ‘‘हम दोनों व्यर्थ ही चिंता में घुल रहे हैं. जब कुछ हो जाएगा तभी चिंता कर लेंगे.’’
‘‘चिंता क्यों जी…’’ संगीता ने हंस कर कहा, ‘‘जिसे ब्याह कर ले आएगा, हम उसे ही आशीर्वाद दे देंगे.’’
देखते ही देखते श्वेता के विवाह का दिन आ गया. वर्मा साहब व रजनीबाला ऊपर से बहुत प्रसन्नता दिखाते हुए भी मन ही मन में बहुत उदास थे. एक ही बेटी है और वह भी अब पराई होने जा रही थी.
निशांत और प्रशांत समझाते, ‘‘पापा, जैसे आप किसी की बेटी को ब्याह कर अपने घर लाए हैं, आज वैसे ही आप की बेटी के पराए घर जाने का समय आ गया है.’’
‘‘हां, पापा,’’ बहुएं कहतीं, ‘‘आप कभी हम लोगों के पास भी आ कर रहा कीजिए.’’
मकरंद वर्मा ने निरंतर हंसने की चेष्टा की थी, पर एकांत में उन्हें अपने आंसू पोंछते हुए श्वेता ने देख ही लिया. वह खुद भी उन से चिपक कर रोने लगी और कहने लगी, ‘‘पापा, इतनी जल्दी क्यों मुझे इस घर से भेज रहे हैं?’’
उन्होंने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा और समझाते हुए कहा, ‘‘यह घर तो हमेशा तुम्हारा रहेगा बेटा, पर दुनिया की रीति तो निभानी ही पड़ती है.’’
संध्या तक घर रोशनी से जगमगा उठा था. शहनाइयों के स्वर गूंजने लगे थे. सुहास 2 बार पुरवा को फोन कर चुका था. पुरवा के मन में भी बहुत उमंग थी. कहीं न कहीं वह स्वयं को उस घर से निरंतर जुड़ा हुआ पाती थी. उसी उत्साह में उस ने कह दिया, ‘‘भई, शोर क्यों मचा रहे हो. आखिर मेरा भी कुछ रिश्ता है उस घर से, उसी हिसाब से तैयार हो रही हूं.’’
‘‘सच,’’ सुहास की धड़कन बढ़ गई, ‘‘कैसी लग रही हो?’’ उत्सुकतावश उस ने फोन पर ही पूछ लिया.
‘‘हाय…’’ पुरवा ने भी दिल थाम लिया, ‘‘इतना धीरज भी नहीं है. घर आने पर खुद देख लेना.’’
‘‘धीरज ही धीरज है पुरु, पर यह शादी का वातावरण धैर्य रखने दे तब न.’’
दूसरी ओर से फोन रखने की आवाज आई. सुहास चाह कर भी तीसरी बार फोन न कर सका.
पुरवा का मन प्यार के हिंडोले में झूलने लगा. उस के विवाह का मौसम भी आएगा एक दिन. सुहास तब सदा उस के पास रहेगा. तब लुकछिप कर मिलने की कोई जरूरत नहीं रहेगी. उतने बड़े घर में वह अकेली होगी. दोनों भाई दूरदूर रहते हैं. श्वेता जा ही रही है. उस के अधर अनायास ही मुसकराहट में खिल उठे.
पुरवा जब अपने पिता सहाय साहब के साथ वहां पहुंची तो वर्मा साहब के बंगले के बड़े से लान में खूब चहलपहल थी. पूरा बंगला रोशनी से नहाया हुआ था.
वर्मा साहब को बहुत लोगों ने यह सुझाव दिया था कि किसी पांचसितारा होटल में व्यवस्था होनी चाहिए, पर उन का कहना था, यह तो अपने इतने सुंदर बंगले की उपेक्षा करने जैसा होगा. पुरवा ने एक भरपूर दृष्टि पूरी सजावट पर डाली और मन ही मन सोचा, ‘सुहास के पापाजी ने ठीक ही कहा था. कैसी सुंदर है मेरी ससुराल.’
मन की खुशी पुरवा के चेहरे पर दमक रही थी. दरवाजे पर सुहास और निशांत खड़े आने वालों का स्वागत कर रहे थे. सुहास ने पुरवा को देखा तो ठगा सा देखता ही रह गया. थोड़ा सा सजसंवर कर ही पुरवा इतनी सुंदर लग सकती है, इस की तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी. कानों में लंबे झुमके, गले में मैचिंग हार, बालों में साड़ी से मिलते रंग का गुलाब का फूल. लगता था जैसे कोई अप्सरा आ खड़ी हुई है.
निशांत ने प्रशंसात्मक दृष्टि से उसे देखते हुए सहाय परिवार का स्वागत किया. श्वेता और रजनीबाला भी उसे देखते ही खिल उठीं. श्वेता ने तो कान में फुसफुसा दिया, ‘‘बहुत सुंदर लग रही हो, भाभी.’’
‘‘हिश…’’ पुरवा लजा गई.
रात्रिभोज समाप्त होने के बाद सहाय परिवार जब वर्मा साहब के पास बिदा लेने पहुंचा तो उन्होंने सहाय साहब की हथेली कस कर दबाते हुए कहा, ‘‘आप आए, बहुत अच्छा लगा.’’
‘‘बेटी की शादी थी, आना ही था,’’ वर्मा साहब ने प्यार से पुरवा की ओर देखा और बोले, ‘‘हमारी बिटिया तो सुबह बिदा हो जाएगी सहाय साहब, पर पुरवा को आने दीजिएगा. आखिर, यह भी तो मेरी ही बेटी है.’’
‘‘आप की ही है,’’ सहाय साहब ने गद्गद स्वर में कहा. बेटी के मातापिता को अचानक घरवर का वरदान मिल जाए तो उन की जो मानसिक स्थिति होती है वही अवस्था सहाय साहब की हो रही थी. सोचा, लोग एडि़यां रगड़रगड़ कर थक जाते हैं, तब भी बेटी के लिए इतना अच्छा घर और वर नहीं ढूंढ़ पाते हैं.
उस दिन के बाद से सुहास का विचित्र हाल हो गया था. पुरवा का सजाधजा रूप उस की आंखों की नींद उड़ा ले गया था पर उसे जल्दी से जल्दी प्राप्त करने का क्या उपाय हो सकता है? उस के मस्तिष्क में बेला का नाम कौंध गया.
-क्रमश: