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मैं अनिष्ट की आशंका से कांप उठा. इस के पहले कि रजनीश उन से उलझता, मैं बोल पड़ा, ‘‘अरे, आप लोग इधर आइए. मेरी बर्थ पर बैठ जाइए.

1-2 स्टेशन की ही बात होगी. उस की तबीयत वास्तव में ठीक नहीं,’’ यह कह कर मैं उठ खड़ा हुआ.

उन उद्दंड यात्रियों में से कुछ ने मेरे इस कदम को अपनी विजय समझी और यों आ कर बैठ गए मानो मुझे ऐसा ही करना चाहिए था.

‘‘अरे अंकल, आप बुजुर्ग हैं, कहां उठ खड़े हुए? आइए, आप भी बैठिए न, कुछ देर का सफर है. फिर आप सो जाइएगा,’’ कहते हुए उन लोगों ने ठहाके लगाए और अपने साथ मुझे भी बैठा लिया. उन के इस आग्रह में आदर नहीं, धृष्टता थी.

‘‘यह अच्छा भी तो नहीं लगता कि आप ही की बर्थ पर हम यात्रा करें और आप बुजुर्ग हो कर खड़े रहें,’’ उन में से किसी ने कहा और डब्बे में एक जोर का ठहाका लगा.

उधर, रजनीश हैरान था कि यह सब क्या हो रहा है. मेरी परेशानी देखते हुए वह भी अपनी बर्थ पर बैठ गया और उन यात्रियों से बोला, ‘‘1-2 लोग इधर मेरी बर्थ पर आ जाइए.’’

‘‘देखो भाइयो? कितनी जल्दी बात समझ में आ गई,’’ कोई बोल उठा. फिर सभी की एक सम्मिलित हंसी पूरे डब्बे में गूंज गई. फिर एक शांति सी छा गई. हठात उन यात्रियों में से एक ने पूछा, ‘‘अंकल, हम लोगों ने आप से तो उठने के लिए कहा नहीं, आप भला क्यों खड़े हो गए?’’

‘‘बेटा, तुम लोगों के ठहाकों के संकेत और परिणाम से वह युवक अनजान था लेकिन कोई 22 वर्ष पूर्व ऐसे ही ठहाकों ने मेरा जीवन ठूंठ में बदल दिया था. मैं इसलिए भयभीत हुआ कि कहीं कोई अनहोनी इस युवक के साथ भी न घटित हो. बस, यही सोच कर मैं ने खड़े हो जाना ही उचित समझा,’’ मैं ने रजनीश की ओर देखते हुए अपनी बात कही.

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