हांफतेदौड़ते जब मैं रेलवे स्टेशन पहुंचा तो पता चला कि ट्रेन 2 घंटे विलंब से आएगी. प्रतीक्षा के क्षणों को बिताने के अतिरिक्त कोई विकल्प न था. इधरउधर दृष्टि दौड़ाई कि कहीं बैठने का स्थान मिल जाए. सीढि़यों के नीचे कपास के पार्सल के बड़ेबड़े गट्ठर रखे थे. मैं उसी पर बैठ कर प्रतीक्षा करने लगा. समय काटने के लिए अनायास ही दृष्टि पूरे प्लेटफौर्म पर घूमने लगी. प्लेटफौर्म मुझे एक प्रकार का चलायमान रंगमंच प्रतीत हो रहा था. कभी गायें किसी ठेले वाले की पूरियों पर मुंह मार लेतीं, कभी न जाने किस दिशा से बंदरों की टोली कूदतेफांदते आती और फल वालों के ठेले से केले आदि उठा कर भाग जाती. भोजन कर रहे यात्रियों से भी मांगने वाले बड़े ही ढीठ स्वरों में अपना हिस्सा मांगते.
मेरी दृष्टि कभी आतीजाती भीड़ पर जाती, कभी कुलियों की उद्दंडता पर और कभी टिकट परीक्षकों की कमाई पर जो वे प्लेटफौर्म पर यात्रियों से ऐंठ रहे थे. लेकिन मेरी दृष्टि बारबार एक ऐसे युगल पर जा कर ठहर जाती जो इन सभी कोलाहलों व उपद्रवों से दूर एक बैंच पर बैठा आपस में बातें कर रहा था. दोनों के हावभाव से प्रतीत होता था कि वे घनिष्ठ मित्र हैं या संभव हो कि उन का संबंध मित्रता से भी कहीं ऊपर हो. ऐसे दृश्यों को देख मुझे बरबस कविता की याद आ जाती थी. वैसे तो हम दोनों मित्र थे पर दिल से उसे मैं किसी और रूप में उस का बहुत सम्मान करता था. मैं अभी उन मीठी कल्पनाओं में खोया ही था कि हलचल मची कि टे्रन आ रही है.
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