बहुत ज्यादा थक गया था डाक्टर मनीष. अभी अभी भाभी का औपरेशन कर के वह अपने कमरे में लौटा था. दरवाजे पर भैया खड़े थे. उन की सफेद हुई जा रही आंखों को देख कर भी वह उन्हें ढाढ़स न बंधा सका था. भैया के कंधे पर हाथ रखने का हलका सा प्रयास मात्र कर के रह गया था.
टेबललैंप की रोशनी बुझा कर आरामकुरसी पर बैठना उसे अच्छा लगा था. वह सोच रहा था कि अगर भाभी न बच सकीं तो भैया जरूर उसे हत्यारा कहेंगे. भैया कहेंगे कि मनीष ने बदला निकाला है. भैया ऐसा न सोचें, वह यह मान नहीं सकता. उन्होंने पहले डाक्टर चंद्रकांत को भाभी के औपरेशन के लिए बुलाया था. डाक्टर चंद्रकांत अचानक दिल्ली चले गए थे. इस के बाद भैया ने डाक्टर विमल को बुलाने की कोशिश की थी, पर जब वे भी न मिले तो अंत में मजबूर हो कर उन्होंने डाक्टर मनीष को ही स्वीकार कर लिया था.
औपरेशनटेबल पर लेटने से पहले भाभी आंखों में आंसू लिए भैया से मिल चुकी थीं, मानो यह उन का अंतिम मिलन हो. उस ने भाभी को बारबार ढाढ़स दिलाया था, ‘‘भाभी, आप का औपरेशन जरूर सफल होगा.’’ किंतु भीतर ही भीतर भाभी उस का विश्वास न कर सकी थीं. और भैया कैसे उस पर विश्वास कर लेते? वे तो आजीवन भाभी के पदचिह्नों पर चलते रहे हैं.
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डाक्टर मनीष जानता है कि आज से 30 वर्ष पहले जहर का जो पौधा भाभी के मन में उग आया था, उसे वह स्नेह की पैनी से पैनी कुल्हाड़ी से भी नहीं काट सका. वह यह सोच कर संतुष्ट रह गया था कि संसार की कई चीजों को मानव चाह कर भी समाप्त करने में असमर्थ रहता है.