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एक बार दीदी शुरू में सपरिवार आई थीं. वह रात को 9 बजे पहुंचने वाली थीं. भला इतनी रात गए तक कौन उन लोगों के लिए इंतजार करता. मैं ने 8 बजे ही खाना लगा दिया था. आकाश कुछ बोलते, इस से पहले ही मैं ने सुना कर कह दिया, ‘9 बजे आने के लिए कहा है. फिर भी क्या भरोसा, कब तक आएं? आप खाना खा लो.’

वह न चाहते हुए भी खाने बैठ गए थे.

अभी खाना खत्म भी नहीं हुआ था कि दरवाजे की घंटी बजी. मैं बोली, ‘अब खाना खाते हुए तो मत उठो. पहले खाना खत्म कर लो फिर दरवाजा खोलना.’

खाना खा कर आकाश दरवाजा खोलने गए. मैं बरतन मांजने लगी. उधर न पहुंची तो 15 मिनट बाद ही दीदी रसोई में आ गईं और नमस्ते कर के लौट गईं. मैं ने उन सब का खाना लगा दिया.

दीदी ने हम से भी खाने को पूछा. फिर बोलीं, ‘इस देश में खाने की कमी नहीं है. हर चौराहे पर मिलता है. साथ न खाना था तो कह देते, हम खा कर आते.’

तो क्या मैं ने कहा था कि यहां आ कर खाएं या उन को किसी डाक्टर ने सलाह दी थी? मैं ने सिरदर्द का बहाना बनाया और ऊपर शयनकक्ष में चली गई. खुद ही निबटें अपने भाईजान से.

सुबह उठी तो दीदी चाय बना रही थीं, ‘क्या खालाजी का घर समझ रखा है, जो पूछने की भी जरूरत न समझी?’ मैं ने दीदी को लताड़ा, ‘आप ने क्या समझा था कि मैं आप को उठ कर चाय भी नहीं दूंगी.’

मेरी रसोई को अपनी रसोई समझा था. उस के बाद कभी दीदी को मेरी रसोई में घुसने की हिम्मत न हुई.

मैं ने दीदी को नहानेधोने के लिए 2 तौलिए दिए तो वह 2 बच्चों के लिए और मांग बैठीं. अपने घर में 4 तौलिए इस्तेमाल करें या 8, यहां एक दिन 2 तौलियों से काम नहीं चला सकती थीं? मैं ने एक पुराना सा तौलिया और दे दिया. आखिर मेरा घर है, जो चाहूंगी करूंगी.

उस के बावजूद कुछ ही दिनों बाद दीदी अचानक दोनों बच्चों के साथ मेरे यहां आ धमकीं. रात को देर तक आकाश से बातें करती रही थीं. वह पति महोदय से खटपट कर के आई थीं. मैं पूछ बैठी, ‘आप ने तो अपनी इच्छा से प्रेम विवाह किया था. फिर अब किस बात का रोना?’

दीदी से कुछ जवाब देते न बना.

मैं तो घबरा गई. कहीं दीदी जिंदगी भर मेरे घर डेरा न डाल लें. अगली सुबह आकाश दफ्तर गए और मैं सोती दीदी के पास ही पहुंच गई, ‘दीदी, वापस लौटने के बारे में क्या सोचा है?’

समझदार को इशारा काफी है. उन्होंने हमारे घर रह पति महोदय से बिलकुल बात न बढ़ाई. उसी दिन जीजाजी को फोन किया और शाम को वापस अपने घर लौट गईं. बस, समझ लीजिए तभी से उन का हमारे यहां आनाजाना कुछ खास नहीं रहा. हम ही उन के यहां साल में 2-3 दिन के लिए चले जाते थे. जाते भी क्यों न, वह बड़े आग्रह से बुलाती जो थीं. बुलातीं भी क्यों न, आखिर उन की पति से कम ही पटती थी. हम से भी नाता तोड़ लेतीं तो आड़े वक्त में कहां जातीं? कौन काम आता?

और फिर उन पर क्या जोर पड़ता था हमें बुलाने में. उन्होंने खाना बनाने को एक विधवा फुफेरी सास को साथ रखा हुआ था. घर की सफाई करने वाली अलग आती थी.

एक बार दीदी भारत गईं तो मेरे लिए मां ने उन के साथ कुछ सामान भेजा. जब मुझे सामान मिला तो उस में से एक कटहल के अचार का डब्बा गायब था, ‘दीदी, अचार चाहिए था तो आप कह देतीं, मैं आप के लिए भी मंगा देती. चोरी करना तो बहुत बुरी बात है.’

बाद में मां ने बताया कि अचार का डब्बा भेजने से रह गया था. बात आईगई हो चुकी थी, तो मैं ने फिर दीदी से कुछ कहने की जरूरत न समझी.

अभी पिछले दिनों दीदी फिर भारत गई थीं. उन्होंने लौट कर फोन किया, ‘लता, तुम्हारे मांबाबूजी से मिल कर आ रही हूं. सब मजे में हैं. मगर तुम्हारे लिए कुछ नहीं भेजा है.’

‘हां, मैं ने ही मां को मना कर दिया था कि हर ऐरेगैरे के हाथ कुछ न भेजा करें. फिर भी मां किसी न किसी के हाथों सामान भेजती रहती हैं. एक पार्सल तो पिछले 8 बरस से आ रहा है. एक 6 महीने बाद मिला था.’

खैर, जो हुआ सो हुआ. मैं अतीत को भूल कर वर्तमान के धरातल पर आ गई. मुझ को अकेले नींद नहीं आ रही थी. रात के 2 बज गए थे. एक तरफ आंसू नहीं थम रहे थे और दूसरी तरफ डर भी लग रहा था इतने बड़े घर में. भूख लग रही थी मगर…मैं अकेली थी…बिलकुल अकेली. शरीर टूट सा रहा था.

मैं मां को भारत ट्रंककाल करने लगी, ‘‘मां, आप कुछ दिनों के लिए अमेरिका आ जाइए. मैं आप का टिकट भेज देती हूं.’’

मां अपनी मजबूरी सुनाने लगीं. विरासत में मिला सुख कुछ भी तो काम नहीं आ रहा था. पति के मरते ही कुछ भी अपना न रहा था. 10 बरस बाद भी उस घर में न तो कोई अपनापन था, न ही देश में.

आकाश 1 लाख डालर छोड़ कर मरे थे. मैं एअर इंडिया को फोन करने लगी, ‘‘मैं वापस भारत जाना चाहती हूं. अपने घर.’’

भारत लौट कर पीहर पहुंची तो वहां कुछ और ही नजारा पाया. भाई की शादी हो चुकी थी, सो एक कमरा भाईभाभी का और दूसरे में मेरे मांबाबूजी. मेरा बैठक में सोने का प्रबंध कर दिया था. मेरा सामान मां के साथ. सुबह बिस्तर समेटते ऐसा लगता था, जैसे उस घर में मैं फालतू थी. मैं ने सोचा, ‘सहना शुरू किया तो जिंदगी भर सहती ही रहूंगी. ऐसी कोई गईगुजरी स्थिति मेरी भी नहीं है. आखिर 10 लाख रुपए ले कर लौटी हूं. चाहूं तो इन चारों को खरीद लूं.’

एक दिन भाभीजान फरमाने लगीं, ‘‘दीदी, पूरी तलवाने में मदद कर दो न, मैं बेलती जाती हूं.’’

आखिर भाभी ने मुझे समझ क्या रखा था…मैं नौकरानी बन कर आई थी क्या वहां? इतना पैसा था मेरे पास कि 10 नौकर रख देती. लेकिन बात बढ़ाने से क्या फायदा था. मैं कुछ भी नहीं बोली थी. मदद नहीं करनी थी, सो नहीं की.

खाना खाने के वक्त भाभी ने अपना खाना परोसा और खाने लगीं. मैं ने भी ले तो लिया, मगर वह बात मेरे मन को चुभ गई. जब मांबाबूजी ही सब बातों में चुपी लगाए थे तो भाभी तो मेरी छाती पर मूंग दलेंगी ही.

मैं ने कहा, ‘‘मेरे आने का तुम लोगों को इतना कष्ट हो रहा है तो मैं वापस चली जाती हूं. मेरे पास जितना पैसा है, मैं उतने में जिंदगी भर मजे से रहूंगी. न किसी से कहना, न सुनना.’’

कोई कुछ भी न बोला. मैं सन्नाटे में रह गई. मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि मेरे मांबाबूजी ही इतने बेगाने हो जाएंगे. फिर ससुराल से ही क्या आशा करती.

घर छोड़ते हुए मेरे आंसू टपक पड़े. मैं फिर अकेली हो गई थी. बिलकुल अकेली. बिलकुल धोबी का कुत्ता बन कर रह गई, न घर की न घाट की.

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