लेखक- दीपक कुमार
यकीन करना मुश्किल था कि 20 साल पहले मैं उस कमरे में रहता था. पर बात तो सच थी. साल 1990 से ले कर साल 1993 तक छपरा में पढ़ाई के दौरान मैं ने रहने के कई ठिकाने बदले, पर जो लगाव पंडित शिव शंकर के मकान से हुआ, वह बहुत हद तक आज भी कायम है. वह खपरैल के छोटेछोटे 8-10 कमरों का लौज था. उन्हीं में से एक कमरे में मैं रहता था. किराया 70 रुपए से शुरू हो कर मेरे वहां से हटतेहटते 110 रुपए तक पहुंच गया था. यह बात दीगर है कि मैं ने कभी समय पर किराया दिया नहीं. पंडित का बस चले तो आज भी सूद समेत मुझ से कुछ उगाही कर लें.
एक बार तो पंडित ने मेरे कुछ दोस्तों से कह भी दिया था कि भाई उन से कहिए कि उलटा हम से 2 महीने का किराया ले लें और हमारा मकान खाली कर दें. पंडित का होटल भी था, जहां 5 रुपए में भरपेट खाने का इंतजाम था. मेरा खाना भी अकसर वहीं होता था. पंडिताइन तकरीबन आधा दिन गोबर और मिट्टी में ही लगी रहतीं. कभी उपले बनातीं, कभी मिट्टी के बरतन. जब खाने जाओ, झट से हाथ धोतीं और चावल परोसने लगतीं. सच कहूं, उस वक्त बिलकुल नफरत नहीं होती थी, बल्कि गोबर और मिट्टी की खुशबू से खाने में और स्वाद आ जाता. उन की एक बेटी थी मालती. साल 1993 में उधर उस की शादी हुई, इधर मैं ने मकान खाली किया. वैसे, मालती से मेरा कोई खास नजदीकी रिश्ता नहीं था, मगर उस के जाने के बाद एक अजीब सा सूनापन नजर आ रहा था. मन उचट सा गया था, इसलिए मैं ने वहां से जाने का तय किया. इस के पहले कि दूसरा ठिकाना खोजता, मेरी नौकरी लग गई और मैं ने छपरा को अलविदा कह दिया.