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काफी समय के बाद विजय से मिलना हुआ. मौसी की बेटी की शादी थी. मामा की एक बेटी थी मिन्नी और बेटा विजय. मिन्नी बचपन से ही नकचढ़ी थी और विजय मेधावी और शालीन. मिन्नी काफी सभ्य, समझदार और विजय भी एक पूर्ण अस्तित्व. समूल परिपक्वता लिए हुए नजरों के सामने आए तो समझ ही नहीं पाया कैसे बात शुरू करूं. अजनबी से लगे वे. बचपन का प्यार, बिना लागलपेट का व्यवहार कहां चला गया. मिलने का उत्साह उड़नछू हो गया जब विजय ने बस इतना ही पूछा, ‘‘कहो, कैसे हो? सोम ही हो न. बहुत समय के बाद मिलना हुआ. घर में सब ठीक हैं न. शांति बूआ के ही बेटे हो न?’’

अवाक् रह गया था मैं. सोचा था झट से गले मिलूंगा सब से. कितना सब बांट लूंगा बचपन का, वह बारिश में भीग कर छींकना...

मेरे और विजय के कपड़े बदलवाती मामी सारा दोष विजय पर ही थोप देतीं. ‘क्यों वह मेरे साथ मस्ती करता रहा,’ बड़बड़ा कर तुलसी का काढ़ा पिलातीं और खबरदार करतीं कि फिर से बारिश में गए तो घर से ही निकाल देंगी. बहुत प्यार करती थीं मामी मुझे. हर साल मामी के पास जाने की एक और वजह भी थी, मामी नारियल और खसखस के लड्डू बड़े स्वादिष्ठ बनाती थीं. तरहतरह के व्यंजन बना कर खिलाना मामी का प्रिय शौक था.

‘‘मामीजी कैसी हैं विजय, उन्हें साथ नहीं लाए?’’

‘‘मां भी चली आतीं तो पापा अकेले रह जाते. मेरे पास भी छुट्टी नहीं थी. मजबूरीवश आना पड़ा. यहां मामा की जगह सारी रस्में मुझे जो निभानी हैं. पापा तो चलफिर नहीं न सकते...’’

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