सेठ पूरनचंद बहुत ही कंजूस था. अपार धनदौलत होते हुए भी उस का दिल बहुत छोटा था. कभी किसी जरूरतमंद की उस ने सहायता नहीं की थी. वह सदा इसी तिकड़मबाजी में रहता कि किसी तरह उस की दौलत बढ़ती रहे. उस की इस कंजूसी की आदत के कारण उस के परिवार वाले भी उस से खिंचेखिंचे रहते थे. पर सेठ को किसी की परवा नहीं थी.
एक दिन सेठ पूरनचंद शाम को सदा की तरह टहलने निकला. चलतेचलते वह शहर से दूर निकल गया.
रास्ते में एक जगह उस ने देखा, एक चित्रकार बड़े मनोयोग से अपने सामने के दृश्य का चित्र बना रहा है. सेठ भी कुतूहलवश उस के पास चला गया. चित्रकार बड़े सधे हाथों से वह चित्र बना रहा था. सेठ प्रशंसा भरे स्वर में बोला, ‘‘वाह, बड़ा सजीव चित्र बनाया है तुम ने. क्या इनसान की तसवीरें भी बना लेते हो तुम?’’
‘‘जी हां,’’ चित्रकार मुसकराया, ‘‘क्या आप को अपनी तसवीर बनवानी है?’’
‘‘हां, बनवाना तो चाहता हूं पर तुम पैसे बहुत लोगे?’’
‘‘पर आप की जिंदगी की यादगार तसवीर भी तो बन जाएगी. अपनी तसवीर बनवाने के लिए आप को मुझे 3-4 घंटे का समय देना होगा. कल सुबह 8 बजे आप मेरी चित्रशाला में आ जाइए,’’ कहते हुए चित्रकार ने अपनी चित्रशाला का पता सेठ पूरनचंद को दे दिया.
अगले दिन सेठ पूरनचंद सजधज कर चित्रकार की चित्रशाला में पहुंचा. उस के गले में मोतीमाणिक के हार थे, हाथ में सोने की मूठ वाली छड़ी थी, पगड़ी में कलफ लगा हुआ था. चित्रकार ने सजेधजे सेठ को देखा तो बोला, ‘‘सेठजी, आप बुरा न मानें तो एक बात कहूं?’’