दरबार जमा हुआ था. सबकुछ निश्चित कर लिया गया था. अब किसी को कोई परेशानी नहीं थी. पंडित गिरधारीलाल की समस्या का समाधान हो चुका था. रजब मियां के चेहरे पर भी संतुष्टि के भाव थे.

हां, कल्लू का मिजाज अभी ठीक नहीं हुआ था. उस ने भरे दरबार में चौधरी साहब की शान में गुस्ताखी की थी. नरेंद्र तो आपे से बाहर भी हो गया था, किंतु चौधरी साहब ने सब संभाल लिया था.

चौधरी जगतनारायण खेलेखाए घाघ आदमी थे. जानते थे कि वक्त पर खोटा सिक्का भी काम आ जाता है. फिर दूध देने वाली गाय की तो लात भी सही जाती है. उन्होंने बड़ी मीठी धमकी देते हुए कल्लू को समझाया था, ‘‘कल्लू भाई, थूक दो गुस्सा. धंधे में क्रोध से काम नहीं चलता. हम तो तुम्हारे ग्राहक हैं. ग्राहक से गुस्सा करना तो व्यवसाय के नियमों में नहीं आता.’’

‘‘लेकिन चौधरी साहब, मैं अपने इलाके का शेर हूं, कुत्ता नहीं. कोई दूसरा गीदड़ मेरी हद में आ कर मेरा हक छीने, यह मुझे बरदाश्त नहीं होगा. वह रशीद का बच्चा, उस का तो मैं पोस्टमार्टम कर ही दूंगा.’’

‘‘कल्लू के मुंह से कौर छीनना इतना आसान तो नहीं है, जितना आप लोगों ने समझ लिया है. आज का फैसला आप के हाथ में है. लेकिन आगे का फैसला मैं अपनी मरजी से लिखूंगा. और हां, यह भी आप लोगों को बता दूं कि अपना आदमी जब बागी हो जाता है तो कहीं का नहीं छोड़ता.’’

‘‘तू क्या कर लेगा? तीन कौड़ी का आदमी. जानता नहीं जुम्मन की लंबी जबान काट कर फेंक दी थी. हरिशंकर आज भी जेल की चक्की पीस रहा है. कृपाराम मतवाला कुत्ते की मौत मरा था. आखिर, तू समझता क्या है अपनेआप को? चिड़ीमार कहीं का.

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