आज सुबहसुबह सोहनलालजी की आंखें मुंदते ही मलय और उस की पत्नी आराधना के समक्ष तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ खड़ा हो गया. पिता के जाने का दुख तो मलय को था ही, लेकिन साथ ही साथ मलय और आराधना को अब इस बात की चिंता भी सताने लगी थी कि पिता की अंत्येष्टि और मृत्यु पर्यंत  समाज के द्वारा बनाए गए ढकोसलों पर खर्च करने के लिए पैसे कहां से आएंगे, जो भी पूंजी थी वह तो पहले ही दोनों बहन माला और मालती को एक अच्छे परिवार और रईस खानदान  में ब्याहने में चले गए थे और फिर बचीखुची पूंजी भी पिताजी की बीमारी में स्वाहा हो गई. उन में इतना साहस नहीं था कि वे लोगों के कमेंट सुन सकें.

अभी तक तो यह स्थिति थी कि पिता की थोड़ी सी पेंशन और घर से लगी मलय की एक छोटी सी किराने की दुकान से बच्चों की पढ़ाई और जैसेतैसे घर का गुजारा चल रहा था, लेकिन अब पिताजी के जाने के बाद यह सब कैसे हो पाएगा. यह सोच कर मलय निढाल सा सोफे पर जा बैठा, तभी आराधना उस के कांधे पर हाथ रखती हुई बोली, "चलो उठो... माला और मालती को खबर करनी पड़ेगी. और बाकी रिश्तेदारों को भी खबर दे दो. जो होना था, वह तो हो ही गया. अब आगे की आगे सोचेंगे, पहले जो सामने है उसे तो निबटाएं. मेरे पास दोनों बच्चों के स्कूल की फीस के पैसे रखे हैं, उन्हें आप अभी के लिए ले लो और फिर माला और मालती के आने के बाद उन से कुछ मदद के लिए कहना."

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