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लेखिका-लता अग्रवाल

‘‘अरे नालायक, तुझ से किस ने कहा था पहली ही बार में मांस नोंचने को. अरे, जानता नहीं, वह परदेस रह आई है, नजाकत वाली बनती है, उस के मिजाज को समझ कर वैसा पांसा फेंकना था. पहले उसे अपनी गिरफ्त में लेता, प्यार से बहलाताफुसलाता. तूने तो पहली बार में जवानी का जोर दिखा दिया. सारा कियाधरा गुडगोबर कर दिया. अब कोई और उपाय खोजना होगा.’’

‘‘अब क्या करें?’’ ‘‘अरे, तू ठाकुरों की औलाद है. एक औरत भी काबू न हो पाई तुझ से? प्यार से, प्यार से नहीं तो धिक्कार के... समझ रहा है न मेरी बात. अरे, एक विधवा को काबू करने में इतना सोच रहा है. ज्यादा सोच मत, मोम को पिघलने में ज्यादा देर नहीं लगती और फिर विदेश में रही है, ज्यादा ऊंचनीच का विचार वह भी न करेगी. सोच ले, अगर निकल गई न चिड़िया हाथ से, तो फिर बस... आधी जायजाद गई, समझ ले. अच्छा है नाग फन फैलाए, इस से पहले उसे कुचल देना चाहिए. पड़ी रहेगी घर में रखैल बन कर. उस की भी जरूरत है...जवान है. कहीं और मुंह मारे, इस से तो यह घर क्या बुरा है. घर का माल घर में रहेगा.”

‘‘तुम को लगता है बाबूजी, वह मानेगी?’’‘‘अरे, मानेगी...मानेगी कैसे नहीं. तू क्या उसे नीलू समझे हुए है कि दो हाथ जमाए कि काबू में कर लिया. अरे, चार अक्षर पढ़ी है, देर से बात समझ आएगी. जरा प्यार से मना, मान जाएगी. जानती है विधवा का कोई ठौर नहीं. ये पांव की जूती रणवीर ने सिर चढ़ा ली है. सो, थोड़ी परेशानी तो होगी.

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