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लेखिका-लता अग्रवाल

रोमी झट उठ कर बाम की शीशी ले आई.‘‘लाइए मैं लगा दूं.“ और रोमी कुंवर प्रताप के सिर पर बाम लगा रही थी. वह कभी उस के हाथ को पकड़ कर कहता, ‘जरा जोर से...हां, हां...यहां...और जोर से. अपनत्व में पगी रोमी बेचारी कुंवर प्रताप के मन में बसे भावों को समझ नहीं पाई. वह तो जब कुंवर प्रताप का हाथ उस के हाथों को पार करता उस के कंधे और फिर नीचे को आने लगा तो उसे कुछ संदेह हुआ.

रोमी संभलती, तब तक कुंवर प्रताप उसे अपनी गिरफ्त में ले चुका था. रोमी बहुत चीखीचिल्लाई, कितनी गुहार लगाई- ‘मां जी बचाइए, छोड़ दो प्रताप भैया, मैं तुम्हारे भाई की अमानत हूं. रिश्तों की दुहाई दी, मगर उस की सारी कोशिश नाकामयाब रही. कुंवर प्रताप पर हवस का नशा चढ़ चुका था. रोमी की चीखपुकार रात के अंधेरे में कोठी की दीवारों से ही थपेड़े खा कर गुम होती जा रही थी. मां जी सुन रही थी मगर बेबस थी. आखिर ठाकुर की ऐयाशी के छींटों ने उस के दामन को दागदार कर ही दिया. रोमी ने बहुत बचने की कोशिश की. मगर कहां वह हट्टाकट्टा ठाकुर, कहां वह नाजुक सी रोमी. मुकाबला करती भी तो कैसे, कब तक?

रोमी जैसेतैसे खुद को समेटे सासुमां के सीने पर जा गिरी. “मां जी, देखिए न क्या हुआ मेरे साथ. मैं यह सब सोच कर तो नहीं आई थी यहां. बताइए न मां जी, मैं कहां गलत थी? मां बोलिए न.” ठकुराइन आंखों से अपनी वेदना जताने के और कर भी क्या सकती थी. मन ही मन सोच रही थी कि आज तो वह बेबस है मगर तब...?

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