लेखिका-लता अग्रवाल
लंदन से इंडिया की ओर आने वाला विमान, विमानतल पर उतरने को तैयार था. विमान परिचारिका घोषणा कर रही थी-
‘‘कृपया, यात्रीगण अपनी पेटी बांध लें…” अचानक रोमी की तंद्रा भंग हुई. उस का दिल जोरों से धड़क रहा था. उस ने एक नजर गोद में सो रही नन्हीं बेटी परी की ओर देखा…मासूम कितनी बेखबर है जिंदगी में हुए हादसों से, नहीं जानती नियति ने उस से जीवन की धूप से बचाने वाला
वह छायादार दरख़्त छीन लिया है. हाय, नन्हीं सी मेरी बच्ची कैसे जान पाएगी पिता का साया क्या होता है. इस दुधमुंही बच्ची पर भी तरस नहीं खाया प्रकृति ने.
कितनी खुशी से उस ने रणवीर के साथ अपने जीवन की शुरुआत की थी. रणवीर भी एक अच्छे और समझदार पति साबित हुए. उसे याद आ रहा है वह वक्त जब रणवीर के साथ उस का ब्याह तय हुआ था. कितना डर गई थी वह. एक तो रईस ठाकुरों के खानदान से…उस पर विदेश में…विदेश का न जाने कितना रंग चढ़ा होगा उन पर… शराब के नशे में झूमते रणवीर का चेहरा डरा देता था उसे. आसपास मंडराती तितलियों की कल्पनामात्र से कांप जाती थी वह. राजस्थान के एक छोटे से गांव जड़ावता की रहने वाली मध्यवर्गीय परिवार की ग्रेजूएट पास रोमी
कैसे निर्वाह कर पाएगी.
मगर उस की खुशी का ठिकाना न रहा जब उस की वे सारी कल्पनाएं थोथी साबित हुईं. रणवीर उस की कल्पनाओं से कहीं बेहतर साबित हुए. उन्होंने न केवल ऊंची पढ़ाई हासिल की थी बल्कि उन के व्यवहार में भी वे ऊंचाइयां थीं. रणवीर हमेशा ध्यान रखते कि कहीं रोमी को अकेलापन महसूस न हो. लंदन जाते ही उन्होंने वहां के अच्छे भारतीय परिवारों से उस की जानपहचान करा दी थी जिन्होंने पराई जमीन पर अपनेपन का एहसास दिया रोमी को.
फिर परिवार में बेटी परी का आना जश्न था उन की जिंदगी में. कितनी धूमधाम से पार्टी दी थी रणवीर ने. सभी मिलनेजुलने वालों ने ढेर शुभकामनाओं से नवाजा था उसे. मगर किसी की मंगलकामना काम न आई.
परी 10 माह की भी नहीं हुई थी कि ऑफिस से लौटते हुए रणवीर की कार सड़क हादसे की शिकार हो गई. हादसा इतना भयानक था कि रोमी की जिंदगी के सारे रंग छीन ले गया और एक कभी न खत्म होने वाला इंतजार दे गया मां-बेटी को.
बेटा सात समंदर पार ही सही, उस की सलामती तसल्ली देती थी एक मां के दिल को. मगर इस हादसे ने ठकुराइन को जिंदा लाश बना दिया. उस की सारी ताकत मानो बेटे के साथ चली गई. वह अपनी बोलने की शक्ति खो बैठी. बस, बिस्तर पर पड़ीपड़ी आंखों से आंसू बहाती रहती. रणवीर के दोस्तों ने अंतिम संस्कार तो वहीं कर दिया मगर ठाकुर साहब का कहना था कि बाकी कर्मकांड विधिविधान से हों ताकि बेटे की आत्मा को सुकून मिले. आज रोमी इसी क्रिया को संपन्न करने हेतु भारत आई है.
विमान हवाई अड्डे के जैसेजैसे करीब आता जा रहा था, रोमी खुद को संभाल नहीं पा रही थी. कैसे जाएगी वह परिवार वालों के सामने. स्वयं को अपराधिनी महसूस कर रही थी वह. कभी सोलह श्रृंगार कर इसी हवाई अड्डे से अपना नया संसार रचने चली थी, आज अपना सारा सुहाग उस धरती पर लुटा कर तमाम उदासियों को अपने दामन में समेटे लौट रही है. खैर, विमान अड्डे पर रुका, परिवार वाले बेसब्री से रोमी का इंतजार कर रहे थे.
रोमी एक हाथ में नन्हीं बेटी को संभाले, दूसरे में रणवीर का अस्थिकलश थामे विमान से बाहर उतरी. जन्मदात्री के आंसू न रुकते थे. कैसे ढाढस बंधाए अपनी बेटी को शब्द और हिम्मत दोनों ही हार रहे थे. पलकों पर बैठाए रखने वाले पापा का बुरा हाल था. कैसे उन की मासूम बच्ची सात समंदर पार अकेली इतने बड़े संकट को झेल पाई. धिक्कार है पिता हो कर भी वे दुख की इस घड़ी में बेटी के साथ नहीं थे.
हवाई अड्डे से बाहर आते ही रोमी को मां-पापा दिखाई दिए. रणवीर के छोटे भाई कुंवर प्रताप ने दौड़ कर उस के हाथ से अस्थिकलश ले लिया तो रोमी के भाई ने नन्हीं परी को. रोमी दौड़ कर मां-पापा के सीने से लिपट गई.
आखिर इतने दिनों चट्टान बनी रोमी मातापिता के प्यार की आंच पा मोम की तरह पिघलती चली गई. आज अपनों को देख उस के दिल का सारा गुबार आंसू की धारा में बहने लगा.
‘‘मां.’’
‘‘हाय, मेरी बच्ची. कैसे इतनी दूर, अकेली, इतना बड़ा दुख सहती रही. हे प्रकृति, मेरी फूल सी बच्ची पर जरा भी रहम न किया. अरे, इस नन्हीं बच्ची ने क्या बिगाड़ा था किसी का जो होते ही सिर से बाप का साया तक छीन लिया.’’
उजड़ी मांग और जिंदगी के सारे रंग खो चुकी रोमी ससुराल पहुंची, तो सासुमां को निष्प्राण देख उस का जी भर आया. हवेली में रणवीर का क्रियाकर्म पूरे विधान से किया गया. ठकुराइन बिस्तर पर पड़ेपड़े कभी बहू की उजड़ी मांग को देखती तो कभी नन्हीं पोती को. बस, बहते आंसू ही उस की व्यथा कह पाते, और कर भी क्या सकती थी वह. अपने और परी के प्रति घर वालों का स्नेह देख रोमी को तसल्ली थी कि वह अपनी जमीन पर अपनों के बीच
लौट आई. अब भला विदेश जा कर वह क्या करेगी. वहां रणवीर के संग बीते पलों के और क्या रखा है? वे यादें तो उस के जीवन का अटूट हिस्सा हैं वह कहीं भी रहे, उस के साथ रहनी ही हैं. यहां रह कर वह रणवीर के परिवार का हिस्सा बनी रहेगी. बेटी को भी स्नेह की छांव मिलेगी. ठाकुरों की ठकुराई भले ही चली गई हो मगर आज भी रणवीर का परिवार गांव का ठाकुर कहलाता है. बड़े घर के नाम से सभी सम्मान करते हैं उस परिवार का. कम से कम एक सुरक्षा का हाथ तो उस के सिर पर रहेगा, उसे और क्या चाहिए. सोचा वह लिख देगी अपने मित्रों को कि उस की प्रौपर्टी सेल कर दें, अब वह लंदन नहीं आएगी.
अपनी ओर से रोमी पूरी कोशिश करती परिवार में घुलनेमिलने की. कुंवर प्रताप के बेटे को भी परी बहुत भाती. दोनों बच्चों के अबोध प्यार को देख रोमी को सुकून था. यह रिश्ता यों ही बना रहे, आखिर यही तो चाहती है वह. नीलू भी उस का बहुत मान करती. हर बात में जीजी ऐसा, जीजी वैसा… सवा महीना होते ही रोमी के मायके से दहलीज छुड़ाने की रस्म पूरी कराने उस के पिताजी आ पहुंचे. रोमी 8 दिन मायके में रह कर फिर ससुराल लौट आई. विदेश में रह कर भी वह नहीं भूली थी कि अब ससुराल ही उस का घर है, उस की निष्ठा अब उस घर के प्रति है. आखिर यही संस्कार तो पाए थे उस ने कि ससुराल ही लड़की का अपना घर होता है. देहरी छुड़ा कर लौटी रोमी ने महसूस किया कि घर के माहौल में कुछ परिवर्तन हुआ है. जाने क्यों अब उसे आसपास की हवा उतनी साफ नजर नहीं आ रही थी. कहीं कुछ घुटाघुटा सा लगता था. हवाओं में उलझे जाल नजर आते, कभी लगता वह जाल उसे ही उलझाने के लिए तैयार किया गया है तो वहीं दीवारों में कहीं कुछ दरार सी लगती, लगता कहीं कुछ है जो उस के खिलाफ पक रहा है.
ठाकुर साहब अब अकसर उस के सामने आने से कतराते. उन की बातों में अब वह अपनेपन का एहसास न होता. और कुंवर प्रताप… उस से तो उस की बातें वैसे भी कम ही हो पाती थीं. एक तो शादी के 15 दिन बाद ही लंदन के लिए रवाना हो गई थी. दूसरे, रणवीर के मुंह से सुन चुकी थी कि कुंवर प्रताप पर ठाकुरों वाला पूरा असर है. खैर, वक्त से बफादारी की उम्मीद तो वैसे भी नहीं थी. फिर भी मन को समझा रही थी कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा.
एक शाम अचानक ठाकुर साहब बोले- ‘‘बेटा नीलू, मुझे तेरे मायके में कुछ काम है, कल तक लौट आऊंगा. चाह रहा था तू भी चल देती अपने मां-बापू से मिल लेती.’’नीलू, आखिर भोली, ठाकुरों की चाल भला क्या समझती. मां-बाप के स्नेह की डोर वैसे भी बड़ी रेशमी होती है. नीलू मायके का लोभ संवरण न कर सकी. झट रोमी से बोली- ‘‘जीजी, सालभर हो गया मां-पापा से मिले, आप कहें तो मैं हो आऊं?’’
‘‘हां, हां, क्यों नहीं. एक दिन की ही तो बात है, मैं मैनेज कर लूंगी.’’ हमारे पुरुषप्रधान समाज ने यों ही नारी को छली कह बदनाम कर रखा है, जबकि एक पहलू यह भी है पुरुषों की कुटिलता की थाह के लिए पानी भी उतना ही दुर्लभ है.
रात रसोई के काम से निबट कर रोमी सासुमां के कमरे में परी के साथ लेटी थी कि कुंवर प्रताप के कराहने की आवाज सुनाई दी- ‘‘ओह, मर गया… मां लगता है अब नहीं बचूंगा…मेरा सिर जोरों से दर्द कर रहा है, कुछ मिल जाता लगाने को.’’