रोजी को देखते ही चारों तरफ मे कौवे की तरह सब कांवकांव करने लगे, परंतु सुशीलाजी के बदले हुए तेवर देख कर चाहे कुंवरपाल हो, चाहे सुनैना हो, सब की बोलती बंद हो गई थी.
पंडितजी शायद बेटे का ही इंतजार कर रहे थे. बेटे को देख कर तसल्ली से उन की आंखें बंद हो गई थीं. उन की जीवनलीला समाप्त हो चुकी थी.
घर में कर्मकांड को ले कर गरमागरम बहस चालू हो गई.
शिव को न ही समाज के ठेकेदारों की परवाह थी और न ही रिश्तेदारों के बकवास की.... जीजा कुंवरपाल और सुनैना जीजी ने भरसक कोशिश की सनातन रीतिरिवाज से मृतक की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान और अन्य क्रिया भाई शिव करे, परंतु वह अपने निर्णय पर अटल रहा. उस ने तीन दिन के अंदर शांति पाठ और हवन कर के अनाथालय में बच्चों को भोजन करवा कर इस कार्यक्रम की समाप्ति कर दी.
शिव के आने के बाद घटनाएं इतनी तेजी से घटी थीं कि वह दुकान पर अपना ध्यान नहीं दे पा रहा था.
दुकान का तो बुरा हाल हो चुका था. न ही कोई ढंग से हिसाबकिताब था और न ही लिखापढ़ी, क्योंकि पापा महीनों से दुकान आते नहीं थे, इसलिए कुंवरपाल ने दोनों हाथों से लूट मचा रखी थी.
सब से पहले उस ने स्टाक लिया. उस ने एक एकाउंटेंट रखा और कई कैमरे लगवा कर अपने फोन के साथ अटैच कर लिया. अब वह घर में रह कर दुकान पर भी अपनी नजर रख सकता था.
जब कुंवरपाल ने ज्यादा नाटक फैलाया, तो उस ने साफ शब्दों में कह दिया कि यह घर और दुकान पर मेरा भी हक बनता है, इसलिए मेरे हिसाब से रहना होगा, नहीं तो आप दोनों को अपना बोरियाबिस्तर समेट कर अपने गांव जाना होगा...
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