उस कौफी शाप में बैठी मैं बड़ी देर से दरवाजे के बाहर आते जाते कदमों को देख रही थी. कदमों को पढ़ना भी एक कला है. दिल्ली की बसों या मेट्रो में लोगों के चेहरों को पढ़ना भी मेरी आदत में शुमार है. मैं चेहरे देख कर व्यक्ति के व्यवहार, पीड़ा या खुशी का अंदाजा लगाते हुए आराम से अपना सफर तय करती हूं. उस रोज मन बड़ा उदास सा था, इसलिए दोपहर बाद कौफी हाउस में आकर बैठ गई थी. नजरें कौफी हाउस के दरवाजे पर अटक गईं. दरवाजे के पार एक जोड़ी कदम सफेद चूड़ीदार में चहकते हुए जा रहे थे. कदमों में आवारगी का पुट था. पंजों पर उछल-उछल कर चलने के क्रम से पता चलता था कि इन कदमों को धारण करने वाली युवती काफी प्रसन्नचित्त है. नई-नई जवानी की मदहोशी में मुब्तिला, भविष्य की चिंताओं से मुक्त कदम.... तभी साड़ी में लिपटे कुछ हल्के और थके कदम सामने से गुजरे.

पुरानी सी मटमैली बैली में फंसे कदम. सुस्त चाल गवाह थी कि जीवन का बोझ ढोते-ढोते इन कदमों की जिम्मेदारियां इस उम्र में भी कम नहीं हुई हैं. अपनी ख्वाहिशों को मार कर बच्चों के भविष्य और खुशियों के लिए जीवन अर्पण करने वाली शायद आज भी सुबह से शाम दफ्तर और घर के बीच खट रही है. इतने में एक जोड़ी कदम दूसरी जोड़ी के साथ नजर आए. ये कदम बहुत उल्लासित से थे. थिरकन का भाव लिए हुए. ये कदम दूसरे कदम से कुछ लिपट लिपट कर चल रहे थे. जरूर ये पति पत्नी हैं. एक दूसरे के प्यार में डूबे हुए. तभी एक जोड़ी कदम कौफी शाप के दरवाजे से भीतर आते नजर आए. गोरे गोरे, सलोने कदम... काले रंग की सैंडल में... बेहद खूबसूरत.

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