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भैया अमेरिका जाने वाले हैं, यह जान कर मैं फूला न समाया. भैया से भी ज्यादा खुशी मुझे हुई थी. जानते हो क्यों? अब मुझे उन के पुराने कपड़े, जूते नहीं पहनने पड़ेंगे. बस, यह सोच कर ही मैं बेहद खुश था. आज तक मैं हमेशा उन के पुराने कपड़े, जूते, यहां तक कि किताबें भी इस्तेमाल करता आया था. बस, एक दीवाली ही थी जब मुझे नए कपड़े मिलते थे. पुरानी चीजों का इस्तेमाल करकर के मैं ऊब गया था.

मां से मैं हमेशा शिकायत करता था, ‘मां, मैं क्या जिंदगीभर पुरानी चीजें इस्तेमाल करूं?’

‘बेटे, वह तुम से 2 साल ही तो बड़ा है. तुम बेटे भी न जल्दीजल्दी बड़े हो जाते हो. अभी उसे तो एक साल में कपड़े छोटे होते हैं. उसे नए सिलवा देती हूं. लेकिन ये कपड़े मैं अच्छे से धो कर रखती हूं, देखो न, बिलकुल नए जैसे दिखते हैं. तो क्या हर्ज है? जूतों का भी ऐसे ही है. अब किताबों का पूछोगे तो हर साल कहां सिलेबस बदलता है. उस की किताबें भी तुम्हारे काम आ जाती हैं. देखो बेटे, बाइंडिंग कर के अच्छा कवर लगा कर देती हूं तुम्हें. क्यों फुजूल खर्च करना. मेरा अच्छा बेटा. तेरे लिए भी नई चीजें लाएंगे,’ मां शहद में घुली मीठी जबान से समझती थीं और मैं चुप हो जाता था.

मुझे कभी भी नई चीजें नहीं मिलती थीं. स्कूल के पहले दिन दोस्तों की नईर् किताबें, यूनिफौर्म, उन की एक अलग गंध, इन सब से मैं प्रभावित होता था. साथ ही बहुत दुख होता था. क्या इस खुशी से मैं हमेशा के लिए वंचित रहूंगा? ऐसा सवाल मन में आता था. पुरानी किताबें इस्तेमाल कर के मैं इतना ऊब गया था कि 10वीं कक्षा पास होने के बाद मैं ने साइंस में ऐडमिशन लिया. भैया तब 12वीं कौमर्स में थे. 11वीं कक्षा में मुझे पहली बार नई किताबें मिलीं. कैमिस्ट्री प्रैक्टिकल में मुझे चक्कर आने लगे. बदन पर धब्बे आने लगे. कुछ घर के उपाय करने के बाद पिताजी डाक्टर के पास ले गए.

‘अरे, इसे तो कैमिकल की एलर्जी है. कैमिस्ट्री नहीं होगी इस से.’

‘इस का मतलब यह साइंस नहीं पढ़ पाएगा?’

‘बिलकुल नहीं.’

डाक्टर के साथ इस बातचीत के बाद पिताजी सोच में पड़ गए. आर्ट्स का तो स्कोप नहीं. फिर क्या, मेरा भी ऐडमिशन कौमर्स में कराया गया, और फिर से उसी स्थिति में आ गया. भैया की वही पुरानी किताबें, गाइड्स. घर में सब से छोटा करने के लिए मैं मन ही मन मम्मीपापा को कोसता रहा. भैया ने बीकौम के बाद एमबीए किया और मैं सीए पूरा करने में जुट गया. सोचा, चलो पुरानी किताबों का झमेला तो खत्म हुआ. एमबीए पूरा होने के बाद भैया कैंपस इंटरव्यू में एक विख्यात मल्टीनैशल कंपनी में चुने गए. यही कंपनी उन्हें अमेरिका भेज रही थी. भैया भी जोरशोर से तैयारी में जुटे थे और मैं भी मदद कर रहा था. वे अमेरिका चले गए. समय के साथ मेरा भी सीए पूरा हुआ. इंटरव्यू कौल्स आने लगे.

‘‘मां, इंटरव्यू कौल्स आ रहे हैं, सोचता हूं कुछ नए कपड़े सिलवाऊं.’’

मां ने भैया की अलमारी खोल कर दिखाई, ‘‘देखो, भैया कितने सारे कपड़े छोड़ गया है. शायद तुम्हारे लिए ही हैं. नए ही दिख रहे हैं. सूट भी हैं. ऐसे लग रहे हैं जैसे अभीअभी खरीदे हैं. फिर भी तुम्हें लगता हो, तो लौंड्री में दे देना.’’

मां क्या कह रही हैं, मैं समझ गया. मैं पहले ही इंटरव्यू में पास हो गया. मां खुश हुईं और बोलीं, ‘‘देखो, भैया के कपड़े की वजह से पहले ही इंटरव्यू में नौकरी मिल गई. वह बड़ा खुश होगा.’’ एक तो पुराने कपड़े पहन कर मैं ऊब गया था और मां जले पर नमक छिड़क रही थीं. क्या मेरी गुणवत्ता का कोई मोल नहीं? मां का भैया की ओर झकाव मुझे दिल ही दिल में खाए जा रहा था. पहली सैलरी में कुछ अच्छे कपड़े खरीद कर मैं ने इस चक्रव्यूह को तोड़ा था. भैया के कपड़े मैं ने अलमारी में लौक कर डाले. मैं अपने लिए नईनई चीजें खरीदने लगा.

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