आज सालों बाद किसी स्त्री का यह स्पर्श उन्हें अंदर से गुदगुदा रहा था. उन की नसों में खून का संचार तेज होने लगा था. उन के भीतर का पुरुष जाग रहा था. उन्होंने गिरिजा को अपनी ओर करते हुए उस का घुंघट उठा दिया और बोले, "तुम ठीक कहती हो गिरिजा, हमें भी अपने लिए जीना चाहिए, जब किसी को हमारी परवाह नहीं, जब समय पर कोई हमारा सहारा नहीं बनना चाहता तो क्यों न हम अपना सहारा खुद ही खोज लें और अपने सहारे का सच्चा सहारा बनें," कहते हुए रुद्रदत्त ने गिरिजा का माथा चूम लिया.
गिरिजा भी अब उनकी बाहों में सिमट गई थी. रुद्रदत्त जी के होंठ गिरिजा के माथे से आंखों पर फिसलते हुए उस के होंठों पर पहुंच गए थे और उन के हाथ उस के गले से फिसल कर उस की पर्वत चोटियों की बर्फ हटाने लगे थे.
उन के हाथों का गरम स्पर्श पा कर गिरिजा पिघल उठी और रुद्रदत्त उस की पर्वत चोटियों का अमृतरस पीने लगे. गिरिजा को यह सब बहुत अच्छा लग रहा था और वह चाहती थी कि रुद्र उस में समा जाएं और यह रात कभी खत्म ही न हो. वह रुद्रदत्त से लिपटी जा रही थी और उन्होंने उसे किसी लता की भांति मजबूत वृक्ष बन कर सहारा दे रखा था.
उन के चुंबन की गति और दबाब दोनों बढ़ चुके थे. उन के बीच के सारे परदे हट चुके थे. रुद्रदत्त के हाथ अब बिना रुकावट गिरिजा के संगमरमरी जिस्म पर फिसल रहे थे. इन दोनों की ही सांसें बहक चुकी थीं। तूफान अपने चरम पर था। तभी रुद्रदत्त गिरिजा से लिपट कर वह पा गए जिसे पाने के लिए यह सारा तूफान उठाया जा रहा था. वे उस के अंदर समाते चले गए जिसे गिरिजा ने भी पूरे मन से स्वीकार किया और जब यह तूफान थमा तो दोनों के चेहरे संतुष्टि से चमक रहे थे. थोड़ी देर ऐसे ही पड़े रह कर सासें ठीक करने के बाद दोनों को होश आया कि कुछ देर पहले उन के बीच से क्या तूफान गुजरा है, जिस ने एक ज्वालामुखी को पिघला दिया था.