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‘‘ठहर जा, करती हूं न अभी तेरी भी खातिरदारी,’’ कहती वे जब तक कपिल के पास पहुंचतीं, कपिल भाग खड़ा हुआ. औफिस में इतने धीरगंभीर दिखने वाले कपिल का यह रूप देख कर कविता हंस पड़ी.

चायनाश्ते और गपशप के बीच सुनंदा ने कब पूरा खाना भी तैयार कर लिया, पता ही नहीं चला. कविता टेबल लगाने में मां की मदद करने लगी. कपिल को सधी उंगलियों से सलाद काटते देखती ही रह गई वह.

‘‘कविता, मेरा यह बेटा तो बेटी से भी बढ़ कर है मेरे लिए,’’ कविता को हैरानी से देखता देख सुनंदा बोल उठीं.

‘‘वह तो दिख ही रहा है, मां,’’ कविता की आंखों में तारीफ थी, ‘‘सचमुच आप खुशहाल हैं मां, जो आप को कपिल जैसा बेटा मिला है.’’

‘‘हूं, खुशहाल,’’ खुद को नियंत्रित करने के मां के सारे प्रयास विफल हो गए, ‘‘खुशहाल तो मैं खुद को उस दिन समझंगी जिस दिन मेरी बहू मेरे साथ किचन में खड़ी मेरा हाथ बंटाएगी, मेरे घर में भी नन्हे बच्चों की किलकारियां गूंजेगी, पर,’’ सुनंदा का मन तड़प उठा.

कपिल मां के चेहरे की असहजता को भांप कर विचलित हो उठा. भले ही मां ने आज से पहले कभी अपने मुंह से कुछ न कहा हो, लेकिन वह जानता तो है कि उस ने कबकब मां के दिल को दुखाया है, उन की भावनाओं को ठेस पहुंचाई है.

कविता के मन ने स्थिति की नाजुकता को भांप लिया और स्वयं को ही कोसने लगी, क्यों बेकार में उस ने ऐसी बात छेड़ दी, जिस ने अच्छेखासे हंसतेखेलते माहौल को बो?िल कर दिया. क्या जरूरत थी. खामोश नहीं बैठ सकती थी थोड़ी देर, एकाएक उस के मुंह से निकल गया, ‘सौरी.’

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