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‘‘आप अभी तक होटल में ही रह रही हैं? मगर क्यों?’’ यह कहने के साथ ही कपिल के हाथ क्षणभर को थम गए. प्याले पर उंगलियों की पकड़ कमजोर पड़ने लगी. एक लड़खड़ाहट सी महसूस हुई उन में और होंठों तक आते न आते प्याला वापस टेबल से जा टकराया.

कविता करीब 2 महीने पहले कपिल के औफिस में दिल्ली ब्रांच से ट्रांसफर हो कर आई थी. निराला ही व्यक्तित्व था उस का, सब में घुलमिल कर भी सब से अलग. कुछ ही दिनों में उस ने खुद को यहां के परिवेश में इस कदर ढाल लिया कि नएपन का एहसास ही कहीं खो गया.

‘‘आप ने तो पहले कभी बताया ही नहीं कि अभी तक आप होटल में ही रह रही हैं,’’ कपिल ने अटकते हुए कहा.

‘‘वो, ऐसा है न कपिल साहब, कोई मन की जगह ही नहीं मिली अभी तक. अब दोचार दिन की बात तो है नहीं, क्या पता दोचार महीने रहना हो या दोचार साल, सोचती हूं दोचार जगह और देख लूं.’’

‘‘अभी तक आप को अपने रहने लायक कोई जगह ही पसंद नहीं आई? कमाल है. इतना बुरा भी शहर नहीं है हमारा. एक बात कहूं, तब तक आप मेरे घर में ही शिफ्ट क्यों नहीं कर लेतीं?’’ कहने के साथ ही कपिल स्वयं ही झेंप गया.

माना कि पिछले कुछ हफ्तों में वह औरों की अपेक्षा कविता के कुछ ज्यादा ही करीब आ गया है पर इस का मतलब क्या हुआ.

वह फिर बोला, ‘‘मेरा मतलब है कि मेरा घर बहुत बड़ा है और रहने वाले बहुत कम लोग हैं. जब तक आप का अपना कोई ठिकाना नहीं मिलता, आप भी वहां रह सकती हैं. वैसे भी मकान का वह हिस्सा उपेक्षित पड़ा हुआ है, घर से बिलकुल अलगथलग. मैं वादा करता हूं, मैं खुद मदद करूंगा आप के लिए घर ढूंढ़ने में. मुझे पूरा विश्वास है कि आप को जल्द अपना मनपसंद घर मिल जाएगा.’’

प्रस्ताव बुरा नहीं था. कविता मन ही मन मुसकराती रही. कहना तो चाहती थी कि चलिए, आप की बात मान ली मैं ने पर प्रत्यक्ष में कुछ न कह सकी.

‘‘अरे, आप तो किसी सोच में डूब गईं.’’

‘‘नहीं तो, मैं तो बस यह सोच रही थी कि क्या यह उचित होगा? लोग क्या कहेंगे?’’ कविता एकदम सकपका कर बोली.

‘‘अच्छा, आप भी सोचती हैं यह सब? आप कब से लोगों की परवा करने लग गईं? मैं इतने दिनों में आप को जितना जान सका हूं, इस से तो इसी

सोच में था कि आप के बारे में उचितअनुचित’, ‘लोग क्या कहेंगेजैसी बातों का कोई असर नहीं होता. मगर आप तो इन बातों के लिए बिलकुल विपरीत ही नजर आ रही हैं.’’

‘‘कपिल साहब, मेरी बात छोडि़ए, मुझे सचमुच कोई फर्क नहीं पड़ता,’’ कविता के स्वर में वही पुरानी बेफिक्री थी. साधारण सी कदकाठी वाली कविता इन्हीं विशेषताओं के कारण औरों से अलग दिखती थी. हलके रंग की प्लेन साड़ी, माथे पर छोटी सी काली बिंदी, एक हाथ में घड़ी और एक हाथ में चंद चूडि़यां, बस, यही था उस का साजशृंगार.

सच भी था, कोई फर्क नहीं पड़ता उसे इन बातों से. अगर फर्क पड़ता तो क्या वह किसी की परवा किए बिना अपना मायका और अपनी ससुराल छोड़ आती पर आज उस के माथे पर चिंता की रेखाएं उभर आईं.

‘‘बात सिर्फ मेरी होती तो और बात थी कपिल, मगर मेरे इस फैसले से तो आप भी प्रभावित होंगे ही न. बस, इसीलिए ही सोचना पड़ रहा है.’’

‘‘अजी, आप मेरी छोडि़ए, मुझे इन सब से कोई फर्क नहीं पड़ता. बस, आप हांकहें तो मां से इजाजत ले लूं. वैसे भी उन्हें तो कोई आपत्ति हो ही नहीं सकती, बल्कि वे तो खुश होंगी.’’

हैरान रह गई कविता. उस के जेहन में सवाल उठे, मां से क्यों? क्या वह अकेला है? उस की पत्नी? कोई बच्चे नहीं हैं?

‘‘कहां खो गईं?’’

‘‘कुछ नहीं, बस,’’ इस के आगे कुछ नहीं कह सकी वह. कहती भी तो क्या कपिल से तो कुछ पूछ ही नहीं सकती इस विषय में. उन्होंने तो एकदूसरे से वादा किया है कि वे एकदूसरे के अतीत में झंकने का कभी कोई प्रयास नहीं करेंगे, मगर यह कैसे संभव होगा? शर्तों के दायरे में दोस्ती? चलो, यही सही पर इस की शुरुआत कविता की तरफ से तो कतई नहीं होनी चाहिए. वह किसी भी कीमत पर कपिल जैसे दोस्त को खोना नहीं चाहती. कपिल के विषय में जितना कुछ भी पता था सिर्फ उसी से. उस ने कभी भी किसी और से कपिल के बारे में कुछ भी जानने की कोशिश नहीं की. न ही कभी किसी ने कुछ बताया. शायद बताने जैसा कुछ हो भी न. बहुत सारी बातें समय के साथसाथ अपनेआप ही पता चल गईं, जैसे वह बहुत रिजर्व रहता है, कम बोलता है, गिनेचुने लोगों के साथ उठताबैठता है. शादी हुई है? शायद नहीं, क्या पता, पता नहीं.’’

‘‘लीजिए, बातोंबातों में कौफी तो एकदम ठंडी हो गई,’’ कपिल कौफी की बेहाली पर हंस पड़ा. उस ने दोबारा कौफी और्डर की.

इस बार कौफी ठंडी करने का इरादा दोनों का ही नहीं था, सो दोनों ही खामोश थे. कविता की उंगलियां लगातार प्याले से ही खेलती रही थीं. शायद वह कुछ और ही सोच रही थी. कपिल के विषय में, उस के घर के विषय में या फिर कुछ और?

उसे अच्छी तरह याद है, कपिल के बहुत कहने पर जब वह पहली बार उस के घर गई थी तब भी मुलाकात सिर्फ उस की मां से ही हुई थी. वहां जा कर पता चला कि कपिल का ही जन्मदिन है आज. इस अवसर पर हर साल की तरह उस की मां सुनंदा देवी ने कुछ खास लोगों को ही आमंत्रित किया था, इस बार उन खास लोगों में वह भी शामिल थी.

मां ने ही सबकुछ अपने हाथों से रचरच कर बनाया था. कितने प्यार से खिला रही थीं सभी को. ममता की जीतीजागती मिसाल लग रही थीं वे. कविता तो देखती ही रह गई, क्या अभी भी इस धरती पर हैं ऐसे लोग?

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