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‘बेटा, तुम्हें तो खीर बहुत पसंद है न और लो थोड़ा सा,’ उन्होंने करीब आ कर कुछ इस तरह कहा कि कविता चौंक ही गई.

‘जी, आप को कैसे पता?’ कविता की जबान लड़खड़ा गई.

इस पर मां हंसीं, ‘अच्छा. मुझे कैसे पता? कपिल तुम्हें पिछले करीब 2 महीनों से जानता है न, समझ लो जितना वह तुम्हें जानता है उतना ही मैं भी जानती हूं.’

क्या बताया होगा कपिल ने अपनी मां को मेरे विषय में, कविता का दिल सोचने पर मजबूर हो गया.

शायद मांबेटे दोनों को एक ही सांचे में ढाला था, तभी तो कपिल की तरह उन्होंने भी उस से कोई ऐसी व्यक्तिगत बात नहीं पूछी जिस का जवाब देना उस के लिए कठिन हो. न ही यह पूछा कि वह कहां की रहने वाली है, घर में कौनकौन हैं, न यह कि शादीवादी हुई है या नहीं अब तक.

कविता की सोच का उस की उंगलियों की हरकत पर कोई असर नहीं पड़ा. उस की कौफी भी कपिल की कौफी के साथ खत्म हुई. गरम कौफी पी कर लगा, सचमुच इस की ही जरूरत थी उसे.

कपिल के साथसाथ कविता भी अपनी कलाई पर बंधी घड़ी देखतेदेखते उठ खड़ी हुई.

‘‘चलें,’’ दोनों हंस पड़े. उन के मुंह से एकसाथ ही निकला था यह शब्द.

‘‘चलिए, आज ही आप को अपने घर ले चलते हैं. इस समस्या का भी समाधान हो जाएगा और मां से मिलना भी. मां के दिल का भी अरमान पूरा हो जाएगा. जब देखो तब कहती रहती हैं, ‘कभी घर ले कर आ न कविता को. एक बार फिर उस से मिलने का बहुत दिल करता है मेरा,’ तो चलें?’’

चाह कर भी वह टाल न सकी कपिल के अनुरोध को और बोली, ‘‘लेकिन, एक शर्त पर, कपिल साहब, आप अपना वादा नहीं भूलेंगे.’’

‘‘कैसा वादा?’’ कपिल के चेहरे पर बनावटी अनभिज्ञता का आवरण था और होंठों पर एक शरारती मुसकान.

‘‘कैसा वादा? आप इतनी जल्दी कैसे मुकर सकते हैं अपने वादे से?’’ कविता के स्वर में झंझलाहट थी.

‘‘याद है बाबा, मुझे सबकुछ याद है. अपना वादा भी. कुछ नहीं भूला मैं. कल से ही जुट जाऊंगा अपने मिशन पर और जल्दी ही एक अच्छे फ्लैट की चाबी आप के हाथ में दूंगा.’’

‘‘अच्छा, तो चलिए इसी बात पर एकएक कौफी और हो जाए,’’ कविता की बात पर कपिल एक बार फिर दिल खोल कर हंस पड़ा. कविता इतनी सहजता से मान जाएगी उस के प्रस्ताव को, कपिल ने तो सोचा भी नहीं था. शायद इस हंसी में वह खुशी भी शामिल थी.

और, कपिल की मां, उन की तो मानो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा जब उन्हें इस बात का पता चला कि कविता यहीं रहेगी.

‘‘बेटा, तुम तो बस आज, अभी कपिल के साथ जा कर होटल से अपना सारा सामान ले आओ यहां,’’ कितनी बेसब्र हो उठी थीं वे, ‘‘मैं आज कितनी खुश हूं, तुम दोनों सोच भी नहीं सकते.’’

कविता को आज पता चला कि कपिल जितनी तारीफ करता है अपनी मां की, वह कम है. उस की मां तो उस से भी कहीं ज्यादा अच्छी हैं. उन के अपार उत्साह को देख कर कपिल यह भी नहीं कह सका कि कविता कोई हमेशाहमेशा के लिए यहां रहने नहीं आई है. वह तो बस, कुछ दिनों के लिए यहां रहना चाहती है, कविता देख रही थी, एक अजीब ही उलझन थी कपिल के चेहरे पर.

‘‘आज नहीं मां, कल. कल संडे भी है, हम दोनों फ्री भी रहेंगे,’’ कहने के साथ ही कपिल ने कविता की ओर देखा मानो उस की भी सहमति चाहता हो.

‘‘हां मां, कपिल ठीक कह रहे हैं,’’ कविता के कहते ही सुनंदा अचानक चौंक गईं. उस के मुंह से अनजाने में ही उन के लिए ‘मां’ शब्द निकल गया था. उसे न जाने उन में ऐसा क्या दिखा जो वह उन की तुलना अपनी मां से करने लगी.

‘‘तुम्हारे मुंह से ‘मां’ शब्द का संबोधन सुन कर बहुत अच्छा लगा. चलो, अब मां कहा है तो उस का मान भी रख लो. आज यहीं ठहर जाओ, मां के पास. साथ रहेंगे, इकट्ठे खाएंगेपीएंगे. ढेर सारी बातें करेंगे. आओ, मैं तुम्हें तुम्हारा कमरा भी दिखा दूं,’’ सुनंदा बहुत खुश थीं. मानो बरसों बाद उन्हें खुश होने का मौका मिला हो.

कपिल भी कविता को मां के हवाले कर मानो निश्ंिचत हो गया हो. वह उन्हें जाता देख बस, दूर से ही मुसकराता रहा.

‘‘बस, 10 मिनट, अभी आ कर चाय बनाती हूं,’’ कपिल को तसल्ली देती वे कविता के आगेआगे चल पड़ीं.

हवादार कमरा, कमरे से लगी बालकनी, बाहर का मनमोहक दृश्य. कविता ठिठक कर रह गई. कमरे में एकएक चीज करीने से संवार कर रखी गई थी मानो उस के आने की खबर उन्हें पहले से ही हो. वह तो अभी तक यह भी नहीं समझ पा रही थी कि यहां आने का उस का फैसला सही है या गलत.

‘‘क्या हुआ? ऐसे क्या देख रही हो? पसंद नहीं आई जगह?’’

‘‘नहीं तो, मैं तो बस.’’ कविता के शब्द होंठों के बीच लड़खड़ा कर रह गए.

‘‘बेटा, यह कमरा कपिल की बहन कोमल का है. तुम फ्रैश होना चाहो तो फ्रैश हो लो, जरूरत का सभी सामान मिल जाएगा यहां तुम्हें. मैं तब तक चाय बनाती हूं तुम दोनों के लिए,’’ कविता कुछ कहती, उस से पहले ही मां वापस जाने को मुड़ चुकी थीं.

आज की शाम में कुछ न कुछ खास बात तो अवश्य थी जो सभी खुश थे. कपिल, सुनंदा, कविता. सुनंदा के हाथों की बनी मठरी और बेसन के लड्डू खा कर तो बस, कविता का दिल ही भर आया. आज उसे अपनी मां की बहुत याद आई. कितनी समानता दिखी दोनों में. बचपन से ले कर आज तक के न जाने कितने पल पंख लगा उस के खयालों के इर्दगिर्द मंडराने लगे. एक मां ही तो थी जिस ने जिंदगी को देखने का नजरिया ही बदल डाला उस का. नहीं तो क्या वह कभी समाज से लड़ने का साहस जुटा पाती? उस दलदल से कभी निकल पाती? आज होती यहां जहां वह है? शायद नहीं.

प्लेट से पकौड़े उठातेउठाते कपिल ने अपनी मां को छेड़ा, ‘‘क्या बात है, मां, आज तो कविता के बहाने मेरी भी खातिरदारी हो रही है.’’

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