‘‘मेरी ही कमाई है यह, जो तुम सब खा रहे हो...’’ बडे़ चाचा ने हाथ नचा कर कहा तो सहसा अनुज के दिमाग में दादाजी का चेहरा कौंध गया. शक्लसूरत बड़े चाचा की दादाजी से बहुत मेल खाती है और हावभाव भी. दादाजी अकसर इसी तरह हाथ नचा कर कहा करते थे, ‘मेरी ही कमाई हुई इज्जत है, जो तुम से लोग ढंग से बात करते हैं वरना कौन जानता है तुम्हें यहां.’
अनुज के पिता बाहर रहते थे और छुट्टियों में 2-4 दिन के लिए ही घर आते थे. बाजार में दादाजी की दुकान थी जिस वजह से सारा बाजार अपना ही लगता था. जिस दुकान पर खड़े हो जाते, दुकानदार हाथ जोड़ कर पूछता, ‘कहिए भैया, कब आए, क्या सेवा करें?’
मुंबई जैसे महानगर से आने वाला अनुज का परिवार कसबे में आ कर पगला सा जाता था. एक ही बाजार में सोने से ले कर लोहे तक और कपड़े से ले कर बरतन तक हर चीज झट से मिल जाती. इस वजह से पापा ज्यादा खरीदारी यहीं से करना पसंद करते. मां सूची तैयार करतीं और सामान खरीद लेतीं. 2 अटैची ले कर आने वाले 4 अटैची का सामान ले कर लौटते. कोई ज्यादा कीमत भी नहीं लेता था जिस वजह से लूटे जाने का डर भी नहीं रहता था. दादाजी का काफी दबदबा था.
अनुज के चेहरे का रंग बदलने लगा सहसा. पापा के समय भी वह यही शब्द सुनता था और आज 20-25 साल बाद भी यही शब्द. दादाजी का दबदबा था, वह मानता है मगर कटोरा ले कर भीख तो उस ने तब भी किसी से नहीं मांगी थी और आज भी वह न किसी से उधार लेता है न किसी से कीमत कम करने को कहता है. अपना समझ कर हर दुकान पर उस का स्वागत होता है और जायज भाव पर उसे चीज मिल जाती है. उस का भी कोई तो मानसम्मान होगा ही वरना दुकानदार तो दुकानदार है, अपनी जेब से तो कोई उसे कुछ देगा नहीं और वह लेगा भी क्यों. जानपहचान वाले से उसे आंख मूंद कर खरीदारी करने में सुविधा होती है. बस, इतनी सी बात. इस पर दादाजी के शब्द उसे चुभ जाया करते थे और आज बड़े चाचा के शब्द भी तीर जैसे लगे.
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