गांव में भी नीलकंठ के लिए सबकुछ बदल गया था. उस के सभी दोस्त उस से एक क्लास आगे हो गए, फिर वे दोस्त अब उस के नहीं रहे... उन्हें अपने घर से हिदायत थी कि नीलकंठ की संगत से दूर रहें, उस पर लेबल लग चुका था, गुनाह का लेबल.
स्कूल में दाखिला तो मिला, मगर टीचर से ले कर हर बच्चे की आंखों में उसे अपने लिए परायापन महसूस हो रहा था. बहुत कष्टकारी दिन रहे वे नीलकंठ के लिए. एक बच्चा कब तक अकेला रहेगा? यहां तो उस के लिए घर ही मानो उस की दुनिया रह गई. वह बाहर निकलता तो बड़े, बच्चे कोई भी उस से स्नेह नहीं करते, बल्कि जेल (बाल सुधारगृह ) के किस्से सुनने में उन की रुचि रहती. इस का प्रभाव उस की मानसिकता पर पड़ने लगा. वह समझ गया कि सब ने उसे अपराधी (खूनी) मान लिया है. जीवन से मानो उस का जी भर गया हो, उस का मन पढ़ाई से उचटने लगा. वह कभी पेटदर्द तो कभी आंख या कभी कान में दर्द होने का बहाना बना कर स्कूल जाने से कतराने लगा. जबरदस्ती भेजने पर वह छोटीछोटी बातों पर गुस्सा हो जाता था या आक्रामक हो जाता था.
परिणामस्वरूप, स्कूल के प्रिंसिपल ने उसे मानसिक रूप से बीमार बता कर किसी अच्छे दिमागी डाक्टर को दिखाने की सलाह दी या अप्रत्यक्ष रूप से उसे स्कूल से हटाने की साजिश थी यह. परिणामत वह पढ़ाई में पिछड़ने लगा. उस के सपने कतराकतरा बिखरने लगे, सपनों संग जिंदगी भी.
काका ने उसे शहर के दिमागी डाक्टर को दिखाया, तो उन्होंने सलाह दी, “बच्चे को उस माहौल से दूर रखिए, जहां यह घटना घटी है.”