कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

हादसे की वह दोपहर भुलाए नहीं भूलती. काकाकाकी को पास के ही गांव में एक रिश्तेदार के यहां किसी उत्सव में रस्म अदायगी के लिए जाना था. यह सोच कर कि जल्दी ही लौट आएंगे, सो मां को बतला कर और मुझे 6 साल के नीलकंठ और 10 बरस की रानू की सरपरस्ती में घर छोड़ गए. मैं रानू से एक बरस ही बड़ी थी. यह कोई पहला अवसर भी नहीं था इस तरह बच्चों को छोड़ कर उन के जाने का… अपना गांव है, भरोसा तो अपनी मिट्टी पर रहता ही है.

काकाकाकी चले गए. दोनों भाईबहन संग मैं दरवाजे में कुंडी चढ़ा भीतर खेलपढ़ रहे थे कि खेत में काम करने वाले हाली ने दरवाजे पर दस्तक दी.

“अहो बिटिया, का करत हो… तनिक पानी प्या दियो, प्यास के मारे कंठ बैठा जा रहा है.”

“प्या दे रए हाली कक्का तनिक रुको…,” कहते हुए रानू ने दरवाजा खोल दिया. नहीं जानती इस कक्का को किस तरह की प्यास लगी है. भरोसे के रिश्ते को सींचना ही तो सिखाया जाता है हमें, क्या पता था कि यहां तो जड़ों में सड़ांध भरी है.

अकेली बच्ची को देख कर हाली के भीतर का कामुक पुरुष करवट ले बैठा. रानू के हाथ से पानी का गिलास लेते हुए उस ने उस का दूसरा हाथ भी पकड़ लिया.

“तनिक आ बैठ पास बिटिया. घर में एक्ल्ली का करत रही… माईबाबू तो दिनकर के घर न गए,” कहते हुए हाली ने दरवाजे की ऊपर वाली सिटकनी चढ़ा दी थी.

“अहो कक्का… जल्दी आ जैंहे वे.”

“तो आओ बिटिया हम तोहर घुमा लाएं.”

“हमें कहीं नहीं जाना कक्का बाबू… माई कह गई है घर में रहने को.”

“तो आजा बिटिया हमऊ तोहार संग खेल खेलें,” कहते हुए उस ने रानू को जबरदस्ती अपनी गोद में खींच लिया.

“का करत हो कक्का बाबू, हम गिर जैहें… छोड़ो हमाय हाथ… हम बाबू से कह दैहें.”

“अए बाबू आए तलक कौन जाने का हुई हें बिटिया,” कहते हुए उस के हाथ रानू की देह पर रेंगने लगे.

किसी पुरुष की देह वासना के बारे में तब मैं भी नहीं जानती थी, मगर इतना अवश्य समझ चुकी थी कि कुछ तो गलत हो रहा है. मैं और नीलकंठ दोनों वहां आ गए. हम भी रानू को हाली की गिरफ्त से छुड़ाने का प्रयास करने लगे. नीलकंठ अपने नन्हे हाथों से उसे पीटने लगा. मैं भी ‘छोड़ दो रानू को कक्का…’ चिल्ला रही थी, मगर हाली की आंख ही अंधी नहीं हुई, कान भी मानो बहरे हो चुके थे. हवस का मारा भूखा भेड़िया हाली ने दूसरे हाथ से मुझे भी पकड़ने का प्रयास किया.

ऐसे में नीलकंठ को कोई और रास्ता न सूझा. बाबू के पास एक रिवाल्वर है, उसे पता था. कुछ दिन पहले ही उस ने मां को अलमारी जमाते समय उसे कपड़ों के बीच छिपाते देखा था.

नीलकंठ दौड़ कर कमरे में गया और उस ने वह रिवाल्वर निकाल ली, जो भरी हुई थी. उस नन्हे हाथों ने आव देखा न ताव बस हाली की ओर निशाना कर रिवाल्वर चला दी. 3 गोलियां चलीं, जिन में एक सीधे हाली के सिर में जा घुसी. खून की धार के साथ वह वहीं ढेर हो गया. निशाना जरा भी चूकता तो मैं और रानू भी उस का शिकार हो सकती थीं. काश, ऐसा होता.

हम दोनों एकदूसरे को गलबहियां डाल रोने लगे दरवाजे पर. गोली की आवाज गांव भर में गूंज गई, लोग दौड़े चले आए.

नीलकंठ ने दरवाजे तक टेबल खींच कर दरवाजे की सिटकनी खोली. देखते ही देखते भीड़ जमा हो गई. मां और कुछ औरतों ने तीनों बच्चों को संभाला… प्यार से सहलाया, हम से पूछताछ होने लगी, किसी ने पुलिस को सूचना दे दी.

इधर सूरज काका और निर्मला काकी का आना हुआ, उधर पुलिस की जीप भी सायरन बजाती हुई आ धमकी. हैरान से काका और काकी समझ नहीं पा रहे थे. कुछ समय पहले बच्चों को घर में हंसताखेलता छोड़ गए थे. अचानक घर खून के रंग में कैसे रंग गया?

पंचनामा बना. हाली की देह वहां से हटा ली गई. अब पूछताछ की बारी हम बच्चों की थी. गुनाह भी हम बच्चों से हुआ और चश्मदीद भी हमारे सिवा कोई नहीं…

जब तक काकाकाकी लौटे, नीलकंठ गांव वालों के सामने अपना जुर्म कबूल कर चुका था, इसलिए उसे पुलिस की गिरफ्त से कोई नहीं रोक सकता था. पुलिस उसे अपने साथ ले गई… हालांकि काका भी कुछ गांव वालों के साथ थाने पहुंचे.

कानून की अपनी प्रक्रिया होती है, केस चला और लंबा चला. लगभग एक बरस तक, तब तक नीलकंठ को सरकारी आदेश के रहते बाल सुधारगृह में भेज दिया गया. कभी मातापिता से एक दिन अलग न रहने वाला छोटा सा मासूम बच्चा रोताबिलखता अपनों से दूर अनजानों के बीच छोड़ दिया गया. सदा पढ़ने में अव्वल रहने वाला नीलकंठ इस तरह न चाहते हुए भी अपराधी भाव से ग्रस्त बना दिया गया. भारतीय कानून की लंगड़ी धीमी चाल से भला कौन परिचित नहीं, पूरे एक साल उसे ऐसे बच्चों के बीच भी रहना पड़ा, जो शातिर किस्म के अपराधी हैं. बेचारे का अधिकांश समय रोने में बीतता. फिर न चाहते हुए भी वह उन बच्चों के षड्यंत्र का शिकार हो जाता.

जब भी काकाकाकी और रानू उस से मिलने जाते, वह बहुत रोता… मिन्नतें करता, “माई मुझे ले चलो… यहां नहीं रहना. सब बहुत बुरे हैं यहां… बच्चे मुझ से लड़ते हैं, डराते हैं, कहते हैं कि तू ने खून किया है, तू खूनी है. माई, मैं खूनी नहीं हूं न

“दीदी, तू बता क्यों नहीं देती इन को कि वह हाली तुझे मार रहा था… माईबाबू नहीं थे घर पर, इसलिए मुझे तेरी रक्षा करनी पड़ी. भाई हूं न तेरा.”

क्या कहती रानू, बस उसे गले लगा कर रोती रहती और समय खत्म होने पर आंसू बहाते हुए लौट आते.

नीलकंठ बेचारा चिल्लाता रहता, “बाबू मुझे ले चलो, छोड़ कर मत जाओ बाबू. मुझे नहीं रहना यहां… वह मोटी औरत यहां ठीक से खाने को भी नहीं देती… दूध मांगता हूं, तो डांटती है… बहुत दिनों से दूध भी नहीं पीया… बाबू, मुझे छोड़ कर मत जाओ,” यह सुन कर कलेजा मुंह को आता था.

धीरेधीरे नीलकंठ के स्वास्थ्य पर इस का प्रभाव पड़ने लगा, एक साल लग गया कोर्ट का फैसला आतेआते. फिर भी शुक्र है कि फैसले में कानून ने तो उसे बहन और अपनी आत्मसुरक्षा में गोली चलाने के लिए निर्दोष साबित कर दिया, किंतु उस का स्वास्थ्य हर लिया. बहुत कमजोर, बुझाबुझा सा रहता. कोर्ट से मुक्ति हुई, तो बाल सुधारघर से भी मुक्ति मिली.

नीलकंठ गांव आया. लगा कि अब सब ठीक होगा, बुरा वक्त टल गया, किंतु सोचा कहां पूरा होता है.

 

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...