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‘‘उफ, मां,’’ खीज कर पिंकी उठी और मां से फोन छीन लिया. रिसीवर हाथ से ढकते हुए बरसी, ‘‘यह क्या मां, क्या जरूरत है आप को इतनी बातें करने की?’’

तब तक फोन कट गया. ‘‘यह लो, फोन भी कट गया. सारा वक्त तो फोन पर आप ले लेती हैं. फोन पर चाहे मेरा ही मित्र हो, उसे भी आप अपना ही मित्र समझती हैं. ऐसे ही जब अनीता आती है तो ऐसे प्यार करने लगती हो जैसे वह आप की दोस्त है.’’ ‘‘तो इस में क्या हुआ? मुझे अच्छी लगती है, सीधी और नाजुक सी लड़की है.’’

‘‘बस भी कर मां, मुझे बहुत बुरा महसूस हुआ कि तुम संजय को कह रही थीं, तुम कोको की पार्टी में नहीं आए. अब कोको खुद यह बात कहे तो और बात है. आप कौन होती हैं यह बात कहने वाली?’’

‘आप कौन होती हैं’ यह वाक्य तीर की तरह चुभा कजली को, ‘‘मैं कौन होती हूं?’’ वह बोली, ‘‘मैं कोको की मां हूं.’’

‘‘मेरा यह मतलब नहीं था, मां.’’

‘‘तुम क्या अपनी जबान को थोड़ा भी नियंत्रण नहीं कर सकतीं? बाहर वालों के सामने तो ऐसी बन जाती हो जैसे मुंह से फूल झड़ रहे हों और घर वालों से कितनी बदतमीजी से बोलती हो?’’

‘‘आप को कुछ समझाना बेकार है, मां,’’ कह कर पिंकी अपने कमरे में चली गई. बाद में कजली भी अपने कमरे में चली गई. अब दोनों को शाम तक, गृहस्वामी के लौटने तक, अपनाअपना अवसाद जीना था, अपनीअपनी खिन्नता को अकेले झेलना था. दोनों दुखी थीं मगर अपने दुखों को बांट नहीं सकती थीं. कोई दीवार थी जो दुखों ने ही चुन दी थी या फिर अभिमान था, एक मां का सहज अभिमान और एक युवा लड़की के तन में बसे उभरते यौवन का अभिमान जो उसे एक अलग पहचान बनाने को मजबूर कर रहा था, जो मां को आहत सिर्फ इसलिए कर रहा था ताकि वह उस के साए से निकल सके और अपना नीला आसमान खुद बना सके. स्कूल से आते ही कोको ने अपना बस्ता फेंका और बिना जूते खोले मां के पास लेट गया. मां से चिपट गया जैसे इतनी देर दूर रहने मात्र से उस के शरीर के कण प्यासे हो गए थे. उस रस के लिए जो सिर्फ मां के शरीर से झरता था. रात को खाने के बाद कजली ने पति से शिकायत की, ‘‘पिंकी बहुत बदतमीज हो गई है. आज इस ने मुझे फूहड़ आदि न जाने क्याक्या कहा.’’

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