‘क्यों?’
‘उन्हें कुछ बात करनी है.’
‘कैसी बात? मम्मी ने तो कभी अपने इस दोस्त के बारे में नहीं बताया… क्या आप भी इन्हें नहीं जानते थे?’
‘नहीं… कल आएंगे तब पता चलेगा कि क्या बात करनी है उन्हें.’ कह कर संजीव उठे और अपने कमरे की ओर चल दिये. आशीष वहीं बैठा रहा. आगन्तुक, जिनका नाम पापा ने अभय बताया था, के बारे में सोचता रहा. कौन हैं, कहां से आये, कहां रहते हैं, क्या बात करनी है उन्हें, पहले कभी क्यों नहीं आये, मां ने उनके बारे में कभी कुछ क्यों नहीं बताया, मुझसे इतने क्यों मिलते हैं… बहुतेरे सवाल उसके दिमाग में चक्कर काट रहे थे.
उधर संजीव के जेहन में भी बाइस बरस पहले की बातें चल रही थीं. इस आगन्तुक से मिलने के बाद जैसे उनकी पूरी जिन्दगी फ्लैशबैक में चलने लगी. रागिनी से उनकी शादी के पांच बरस बीत चुके थे और रागिनी की गोद सूनी की सूनी थी. पहले दो साल तो बेख्याली में गुजर गये, मगर तीसरा साल लगते-लगते संजीव की मां ने और रिश्तेदारों ने बहू को टोकना शुरू कर दिया था. मां को पोते का मुंह देखने की जल्दी मची थी. आये-दिन रागिनी को लेकर कभी इस पंडित के पास तो कभी उस ओझा के पास पहुंच जाती थी. तमाम टोने-टोटके करा लिये, अनेक डॉक्टरों से दवा-इलाज करवा लिया, मगर नतीजा कुछ नहीं निकला. कभी-कभी खिसिया कर रागिनी को कोसने भी लग जाती थी, ‘बांझ है बांझ… मेरे बेटे की तो तकदीर ही फूट गयी… हाय, अब मेरा वंश कैसे बढ़ेगा… इसकी तो कोख ही नहीं फल रही….’ मां की बातों से रागिनी बहुत आहत होती थी, कमरे में खुद को कैद करके फूट-फूट कर रोया करती थी. तब संजीव उसे बहुत दिलासा देते थे. कहते थे, ‘रागिनी हमारी किस्मत में बच्चा होगा तो जरूर मिलेगा. अभी कौन सी हमारी उम्र निकल गयी है? तुम मां की बातों को दिल पर मत लिया करो. वो बूढ़ी हो गयी हैं. कुछ काम-धाम नहीं है तो तुम्हारे पीछे पड़ी रहती हैं….’ मगर रागिनी को संजीव की बातों से राहत नहीं मिलती थी. वह खुद बच्चे के लिए बड़ी परेशान रहती थी. उसकी सभी सहेलियों की गोद में बच्चे खेल रहे थे, बस वही थी जो बांझ होने का कलंक लिये घूम रही थी. यह कलंक वह किसी भी कीमत पर हटाना चाहती थी.
उन्हीं दिनों की बात है जब संजीव ने रागिनी को बताये बिना एक जान-पहचान के डॉक्टर से अपना भी चेकअप करवाया था. रिपोर्ट आयी तो पता चला कि बच्चा न होने का कारण वह खुद ही है. कमी संजीव में ही थी. उसके सीमन में शुक्राणु न के बराबर थे. रिपोर्ट देखकर डॉक्टर ने साफ कह दिया था कि वह कभी पिता नहीं बन सकता. हालांकि उन्होंने संजीव को कुछ दवाएं दी थीं, मगर दो महीने के सेवन के बाद भी शुक्राणुओं की संख्या में कोई वृद्धि नहीं दिखी.
संजीव अपना इलाज करवा रहे हैं, यह बात उन्होंने रागिनी को कभी नहीं बतायी और न ही कभी रागिनी के समक्ष यह स्वीकार कर पाने की उनकी हिम्मत हुई कि वह उसे बच्चा देने लायक नहीं हैं. वह डरते थे कि बात खुली तो उनके माथे पर नपुंसक, नामर्द जैसे कलंक चमकने लगेंगे. वह कैसे अपनी कमजोरी रागिनी के सामने स्वीकार करें? कैसे बतायें कि कमी रागिनी में नहीं, बल्कि खुद उनके अन्दर है? यह सच बताने के बाद वह कैसे रागिनी का सामना कर पाएंगे, जो उनकी मां के ताने सुन-सुन कर आधी हो चुकी है. मोहल्ले की औरतों के बीच ‘बांझ’ के नाम से पुकारी जाने लगी है. वह अपने इलाज के बारे में चुप्पी साध गये. उनमें सच को कह पाने की हिम्मत ही नहीं थी.
फिर एक दिन अचानक रागिनी ने घर में खुशियों का बम फोड़ दिया. शाम को संजीव आॅफिस से लौटे तो घर में औरतों का जमावड़ा लगा था. ढोल बज रहा था, गाने गाये जा रहे थे. चारों ओर चहचहाटें, रौनकें, हंसी-ठिठोली, किलकारियों के पटाखे छूट रहे थे. संजीव के लिए बधाइयों का तांता लग गया. अपनी मां के चेहरे की खुशी देखकर तो वह दंग रह गये. इससे पहले उन्होंने अपनी मां को कभी इतना खुश नहीं देखा था. खुशी से उसका चेहरा दमक रहा था. मां ने उनके मुंह में लड्डू ठूंसते हुए कहा – ‘पांव भारी हैं बहू के… देखना पहला तो पोता ही होगा’. शर्मायी-लजायी रागिनी ने मुस्कुरा कर कमरे में संजीव का स्वागत किया.
उसने संजीव को अपनी बाहों में जकड़ कर पूछा, ‘तुम खुश हो न?’
संजीव ने हौले से जवाब दिया, ‘बहुत….’ उस दिन संजीव की बाहों में लिपटी रागिनी के चेहरे पर दर्द और टीस की जगह खुशी, शान्ति और सुख का नूर था, मगर संजीव के दिमाग में हलचल मची थी. वह जानते थे कि यह बच्चा उनकी देन नहीं है. फिर कौन है जिसने रागिनी को यह खुशी दी है? कब और कैसे वह रागिनी के सम्पर्क में आया? रागिनी उनसे छिप कर किसी और से मिलती थी? रागिनी ने उन्हें धोखा दिया? दम्भी पुरुष प्रवृत्ति उन पर हावी होने लगी. मगर साथ-साथ वह इस आशंका से भी भर गये कि कहीं डॉक्टर की दवाएं तो असर नहीं कर गयीं उन पर.. हो सकता है उनके सीमन में शुक्राणुओं की संख्या बढ़ गयी हो… शायद वही इस बच्चे के बाप हों.. शायद विज्ञान का चमत्कार हो ही गया हो… शायद… शायद… रात भर सैकड़ों सवाल उन्हें परेशान किये रहे, मगर सुबह तक वह एक फैसले पर पहुंच चुके थे. यह फैसला था आने वाले के स्वागत का.