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‘‘तुम चिंता मत करो, शायक. कोई न कोई राह निकल ही आएगी. पर इस के लिए हम मां को दुख तो नहीं पहुंचा सकते.’’

शायक कसमसा कर रह गया. उस का बस चलता तो वह कुछ अप्रत्याशित कर बैठता पर उस ने चुप रहना ही ठीक समझा.

इस बहस से कामिनी भी आहत हुई थीं पर रम्या से वादा कर दिया था इसलिए उस की सहायता को चली गई. आज उस की गतिविधियों पर उन की पैनी नजर थी. शीघ्र ही उन्हें आभास हो गया कि शायक उन से अधिक समझदार है. रम्या को केवल उन की सहायता नहीं चाहिए थी वह तो सारा काम उन्हीं से करवा रही थी. वह बड़ी होशियारी से उन की प्रशंसा के पुल बांधे जा रही थी. मानो इसी तरह उन्हें बरगला लेगी.

‘‘बालूशाही तो लाजवाब बनी हैं, दहीबड़े और बना दीजिए. आप के हाथों में तो जादू है,’’ बालूशाही बनते ही रम्या ने आगे का कार्यक्रम तैयार कर दिया.

‘‘रम्या बेटी, थक गई हूं. सुबह से काम कर रही हूं. एक कप चाय तो पिला,’’ कामिनी हंसीं.

‘‘पिलाऊंगी, चाय भी पिलाऊंगी. पहले काम तो समाप्त हो जाने दीजिए.’’

रम्या का उत्तर सुन कर दंग रह गईं कामिनी. वे उठ खड़ी हुईं.

‘‘अरे, जा कहां रही हैं आप? काम हो जाने के बाद चाय पी कर चली जाइएगा.’’

‘‘थोड़ी देर आराम कर के आऊंगी, बेटे. बैठेबैठे कमर में दर्द होने लगा है.’’

‘‘इतने नखरे क्यों दिखा रही हैं आप? पैसे दूंगी. मैं किसी से मुफ्त में काम नहीं करवाती,’’ रम्या बदतमीजी से बोली.

कामिनी अविश्वास से घूरती रह गईं. न आंखों पर विश्वास हुआ न कानों पर. रम्या ने उस के बाद क्या कहा, वे सुन नहीं सकीं. चुपचाप उस के अपार्टमैंट से बाहर निकल आईं. पर वे अपने फ्लैट तक पहुंच पातीं, इस से पहले ही सुजाताजी मिल गईं.

‘‘मैं तो आप के यहां ही गई थी पर आप के यहां ताला पड़ा था,’’ वे उन्हें देखते ही बोलीं.

‘‘मेरे पास घर की एक चाभी हुआ करती है, इसलिए चिंता की बात नहीं है. चलिए न, मैं तो घर ही जा रही थी,’’ कामिनी बोलीं.

सुजाता कामिनी के साथ चली आईं.

‘‘आइए न, बैठिए. मैं अभी आई,’’ कामिनी ने सोफे की ओर इशारा किया.

‘‘मैं बैठने नहीं आई. आप का हिसाब करने आई हूं.’’

‘‘हिसाब? कैसा हिसाब?’’

‘‘आप ने 4-5 दिनों तक मेरी सेवा की, उसी का हिसाब,’’ उन्होंने 500 का नोट दिखाते हुए कहा.

‘‘क्या कह रही हैं आप? मैं ने पैसों के लिए आप की सेवा की थी क्या?’’

‘‘अरे तो इस में शरमाने की कौन सी बात है. आजकल के बच्चे ऐसे ही हैं. कितना भी कमाते हों पर मातापिता पर कुछ भी खर्च करने से कतराते हैं,’’ सुजाता नाटकीय स्वर में बोलीं, ‘‘मैं क्या समझती नहीं. कोई बिना मतलब किसी की सहायता क्यों करने लगा? अपने मुंह से कहना आवश्यक थोड़े ही है. 500 रुपए कम हैं क्या? 100 रुपए और ले लीजिए.’’

‘‘बस कीजिए, मैं कुछ कह नहीं रही तो आप जो मन में आए कहे जा रही हैं. आप बीमार थीं, कोई देखभाल करने वाला नहीं था. मानवता के कारण आप की देखभाल कर दी तो आप मुझे अपमानित करने चली आईं,’’ कामिनी क्रोधित हो उठीं.

‘‘लो, भलाई का तो जमाना ही नहीं रहा. मैं तो आप की सहायता करना चाह रही थी. रम्या से आप की सिफारिश मैं ने ही की थी. कल आप वहां भी लड्डू बना कर आई थीं. अब भी तो वहीं से आ रही थीं आप?’’

‘‘मैं क्या आप को घरघर जा कर काम करने वाली लगती हूं? शरम नहीं आती आप को? आप जैसों को खरीदने की हैसियत है मेरी. निकल जाइए यहां से. मुझे नहीं पता था कि यहां के लोग मानवता की भाषा भी नहीं समझते,’’ वे अपने स्वभाव के विपरीत चीख उठीं.

‘‘लो, मैं ने ऐसा क्या कह दिया, इस तरह आपा क्यों खो रही हैं आप?’’ सुजाता ने कामिनी के घर से निकलते हुए कहा.

उन के जाते ही कामिनी कटे वृक्ष की भांति कुरसी पर गिर गईं. उठ कर चाय बनाने की भी हिम्मत नहीं हुई. वहीं बैठेबैठे सो गई थीं. जब द्वार की घंटी बजी, द्वार खोला तो सामने शुचि खड़ी थी. ‘‘अंदर आओ न,’’ उसे वहीं खड़े देख कर वे बोलीं. तभी समवेत खिलखिलाहट का स्वर गूंजा.

‘‘अरे कौन है? शुचि, आज क्या आर्यन और अदिति को घर ले आई है?’’

‘‘हां दादी. हम दोनों आ गए हैं ऊधम मचा कर आप को सताने. मां कह रही थीं आप का अकेले मन नहीं लग रहा है.’’

मां के पीछे खड़े दोनों बच्चे उन के सामने आ खड़े हुए.

‘‘हां रे, मैं तो वापस जाने की सोच रही थी.’’

‘‘दादी, आप यहां आ जाओ तो हम छात्रावास छोड़ कर घर में रहने लगें.’’

‘‘पहले क्यों नहीं कहा? अपने घर को किराए पर दे कर यहीं आ जाती.’’

‘‘तो अब आ जाओ न, दादीमां,’’ दोनों उन के गले लग कर झूल गए.

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