अगले दिन नाश्ता करने के बाद शुचि रम्या के घर जा पहुंची. द्वार खोलते ही उसे देख कर चौंक गई थी रम्या.
‘‘मांजी की तो तबीयत ठीक नहीं है. मैं ने सोचा मैं ही तुम्हारी सहायता कर दूं,’’ शुचि सोफे पर पसरते हुए लापरवाही से बोली.
‘‘क्या कह रही हो, तुम? आज औफिस नहीं जाना क्या?’’ रम्या चौंक कर बोली.
‘‘आज छुट्टी ले ली है मैं ने. पड़ोसियों के लिए इतना त्याग तो करना ही पड़ता है. सोचा, पहले तुम्हारा हाथ बंटा दूं, उस के बाद हम सब का घूमने जाने का कार्यक्रम है. चलो बताओ, क्या करना है? मेरे पास अधिक समय नहीं है,’’ शुचि बोली.
‘‘काम तो बहुत सारा है. दहीबड़े बनाने हैं. खट्टीमीठी दोनों तरह की चटनी बनानी हैं. कचौड़ी बनाने की तैयारी भी करनी है. तुम्हें आता है ये सब?’’
‘‘पहले ही कहे देती हूं. मांजी की तरह कुशल नहीं हूं मैं. वैसे भी थोड़ा जल्दी थक जाती हूं.’’
‘‘तुम चिंता मत करो, मैं सब संभाल लूंगी.’’
‘‘कैसी बातें कर रही हो? पड़ोसी धर्म भी कोई चीज होती है. पर पहले थोड़ी चाय तो बनाओ. क्या है न, बिना पैट्रोल के गाड़ी चलती नहीं है,’’ शुचि बेबाकी से हंस दी.
‘‘अभी बना देती हूं. हम दोनों ने भी चाय कहां पी है. पलक को ट्यूशन के लिए भेज कर अभी जरा सा समय मिला है. अभी तक सुषमा भी नहीं आई है. हर रोज तो 7 बजे तक आ जाती थी,’’ रम्या चाय बनाने की तैयारी करते हुए बोली.
‘‘इन कामवालियों के संबंध में तो कुछ न कहना ही अच्छा है. इन्हें कुछ भी दो पर इन का मुंह तो कभी सीधा होता ही नहीं,’’ रम्या अब भी केवल अपनी कामवाली सुषमा को कोस रही थी.