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पति के साथ औफिस टूर पर लंदन गई रितु ने वहां की जिंदगी का भरपूर मजा लिया लेकिन खरीदारी करते वक्त भारतीय वस्तुओं के कम स्तर की तुलना करतेकरते रितु ऐसा क्या ले आई कि सिर पकड़ कर बैठ गई?विमान लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर उतरा तो आसमान से बूंदें टपक रही थीं. नवंबर के अंतिम सप्ताह में बेमौसम की बौछारों से तापमान बहुत नीचे गिर गया था. विमान से निकल कर बस तक पहुंचतेपहुंचते हड्डियां ठंड से ठिठुर गईं.

सड़कें सुनसान पड़ी थीं. दूरदूर तक कहीं कोई नजर नहीं आ रहा था. केवल तृणविहीन पेड़ों की अंतहीन कतारों में भारत की भीड़भाड़ और गहमागहमी की आदी आंखों को यह सब बड़ा ही उजाड़ और असंगत सा लगा... ‘तो ऐसा है लंदन.’

यों लंदन का उत्तम सैलानी सत्र करीब डेढ़ महीने पहले बीत चुका था, पर भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशवासियों को लंदन की सैर की सूझे, वह भी कंपनी के खर्चे पर, तो त्याग परम आवश्यक बन जाता है. ठंड का क्या, थोड़ाबहुत ठिठुर लेंगे. होटल और जरूरी जनसुविधाएं तो सस्ती पड़ेंगी, बजट तो नहीं गड़बड़ाएगा.

रजत की कामकाजी यात्राओं में रितु भी दुबई, नेपाल, कोलंबो और सिंगापुर की सैर पहले ही कर चुकी थी. कभी कंपनी के खर्चे पर तो कभी अपने खर्चे से, पर यूरोप का यह पहला सफर था उस का.

इस बार की डीलर्स कौन्फ्रैंस लंदन में थी. लिहाजा लंबाचौड़ा दलबल जा रहा था. उच्च पदासीन अधिकारी पत्नियों को भी साथ ले जा सकते थे. 3 दिन का कामकाजी और सैरसपाटे का ट्रिप था. रितु तो मारे खुशी के उछल ही पड़ी थी. बच्चों को साथ ले जाना सदा की भांति वर्जित था. गुड्डु को साथ न ले जाने की मजबूरी रितु को ग्लानि से भर देती. बच्चे को छोड़ कर घूमनाफिरना उसे बिलकुल ही न भाता. मातापिता के विदेश जाने की बात सुन गुड्डू भी उदास हो जाता, पर फिर समय पर दादी बात संभाल लेतीं, ‘जाने दे मां को... हम दोनों मिल कर यहां खूब मजे करेंगे,’ वह पोते को बांहों में भर कर प्यार करतीं.

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