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उस के पूरे शरीर में दर्द था और चलनेफिरने में भी दिक्कत थी. जैसेतैसे दूध गरम कर ब्रैड के 2 पीस खा कर उस ने दवा ले ली थी. फिर जल्दी ही उसे नींद आ गई थी. सुबह आंख खुली तो समूचा जिस्म अकड़ा हुआ था. अपनी सहकर्मी मित्र को फोन कर उस ने हादसे की सूचना दी थी और अवकाश के लिए कह दिया था. सांझ होते ही उस की कुलीग्स उस का हालचाल जानने के लिए घर आ गई थीं और उस के खानेपीने का प्रबंध कर गई थीं.

अगले दिन जब नींद से जागी तो सिर दर्द से फटा जा रहा था और सारा शरीर ताप से जल रहा था. वह बिस्तर से उठने के प्रयास में लड़खड़ा गई थी, लेकिन फोन बज रहा था इसलिए जैसेतैसे उस के पास जा कर रिसीवर कान से सटाया था.

‘‘हैलो संध्याजी, आप कैसी हैं?’’ उधर से शेखर की आवाज थी.

‘‘बस तबीयत ठीक नहीं है, बुखार है शायद. ऐक्सीडैंट...,’’ संध्या का कंठ भर्रा गया था, रिसीवर हाथ से छूट गया था.

फिर कांपते हाथों से चाय बना, 2 बिस्कुट के साथ चाय गटकने के बाद संध्या ने बुखार, बदनदर्द की टैबलेट खा ली थी और बुखार की खुमारी में पता नहीं कितनी देर यों ही पड़ी थी कि अचानक दरवाजे की घंटी की आवाज से तंद्रा टूटी थी.

दरवाजा खोला तो आगंतुक को देख बुखार की खुमारी में बंद आंखें चौंक कर फैल गईं थीं और उसे तुरंत नारीसुलभ लज्जा ने घेर लिया था. वह अपने अस्तव्यस्त कपड़े और बिखरे बाल समेटने लगी थी.

‘‘आप...?’’ वह बोली थी.

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