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‘‘क्या हो गया है तुम्हें, सुकेतु? तुम तो पड़ोसियों तक की मदद करने को भी तैयार रहते थे... अतिथि हमारेतुम्हारे नहीं होते. वे तो सब के साझे होते हैं,’’ मां ने समझाना चाहा.

‘‘दीदी भी आई थीं न मां? तब स्वस्ति ने ऐसा व्यवहार किया था जैसे वे कोई अजनबी हों. मैं उस बात को चाह कर भी नहीं भुला पाया.’’

‘‘घरगृहस्थी में ईंट का जवाब पत्थर से नहीं देते बेटे. तुम दोनों को जीवन साथ बिताना है. थोड़ी समझदारी दिखाओगे तो राह आसान हो जाएगी.’’

‘‘मां, आप को मेरी ही गलती नजर आ रही है. सही जवाब नहीं देने का अर्थ होगा हार स्वीकार कर लेना. आप तो जानती ही हैं कि हार स्वीकार करना मेरे स्वभाव में है ही नहीं.’’

‘‘मैं ने हारजीत की तरह कभी सोचा ही नहीं. जीवन कोई युद्ध तो है नहीं. फिर भी मैं यह तुम्हारे विवेक पर छोड़ती हूं. और सुनाओ कैसा चल रहा है?’’

‘‘सब ठीकठाक है. आप और पापा कुछ दिनों के लिए यहां आ जाओ न. अच्छा लगेगा.’’

‘‘सोचेंगे, तुम्हारी छोटी बहन नंदिनी का विवाह तय हो गया तो शायद तुम लोगों को ही आना पड़े.’’

स्वस्ति समानांतर फोन पर दोनों का वार्त्तालाप सुन रही थी. उस की आंखों में अपनी मौम की छवि तैर गई, जिन्होंने उस के मनमस्तिष्क में यह कूटकूट कर बैठा दिया था कि अपने हितों की रक्षा के लिए उसे शुरू से ही सजग रहना होगा ताकि वर पक्ष सदा डरासहमा सा रहे. अधिक चूंचपड़ करें तो पुलिस की धमकी देने से भी पीछे मत रहना. दुनिया देखी है मैं ने. तुम दोनों को मैं ने कैसी मुसीबतों में पाला है, यह मैं ही जानती हूं. तुम्हारे पापा और उन के परिवार ने तो मेरा जीवन नर्क बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. पर बाद में वे भी समझ गए थे कि मैं दूसरी ही मिट्टी की बनी हूं. उन्होंने उसे समझाया था.

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