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पति के कोमल हृदय का परिचय वह तभी पा चुकी थी जब उन का पूर्ण परिचय होना अभी बाकी था. शादी हुए अभी 15 दिन ही हुए थे कि प्रभा को तेज बुखार हो गया. दीपकजी उस के माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रख रहे थे, तभी उन की पड़ोसिन के पेट में दर्द उठने लगा. उस की सास दौड़ीदौड़ी आई.

यह जान कर कि पड़ोसी उस समय औफिस के काम से दौरे पर गए हुए हैं, दीपकजी एक क्षण भी गंवाए बिना फौरन सासबहू को अस्पताल ले गए. प्रभा की तरफ उन्होंने मुड़ कर भी नहीं देखा. घर का दरवाजा भी बंद करने का उन्हें ध्यान न रहा. कराहती प्रभा ने उठ कर स्वयं ही दरवाजा बंद किया और समय देख कर दवा निगलती रही. ऐसी हालत में उस ने किस तरह अपनी तीमारदारी स्वयं ही की, उसे आज तक याद है.

उधर, दीपकजी भागभाग कर पड़ोसिन के लिए दवाइयां ला रहे थे. समय से पूर्व हुए प्रसव के इस जटिल केस को सफलतापूर्वक निबटा कर बेटा पैदा होने के बाद डाक्टर साहब उन्हें ही पिता बनने की बधाई देने लगे. घर आ कर जब हंसतेहंसते दीपकजी उसे यह प्रसंग सुना रहे थे, प्रभा की आंखों में स्वयं की अवहेलना के आंसू थे.

प्रभा के प्रथम प्रसव के समय जनाब नदारद थे, अपने बीमार दोस्त के सिरहाने बैठे उसे फलों का रस पिला रहे थे. दीपकजी पड़ोस की भाभियों में खासे लोकप्रिय थे, ‘भाईसाहब, आज घर में सब्जी नहीं आ पाई.’ ‘अरे, तो क्या हुआ, हमारे फ्रिज से मनचाही सब्जी ले जाइए. न हो तो प्रभा बना देगी. पकीपकाई ही ले जाइए.’

‘भाईसाहब, यह बिजली का बिल…’ कोई दूसरी कह देती. ‘बन्नू के स्कूल की फीस…’ ‘गैस खत्म हो गई है…’ ‘पिताजी की पैंशन का रुका हुआ काम…’ पचासों सवालों का एक ही जवाब था, ‘दीपकजी.’ ‘‘कितने फुर्तीले हैं दीपकजी, हमारे पति तो इतने आलसी हैं, दिनभर पलंग तोड़ते रहेंगे. कोई काम उन से नहीं होता. छुट्टी के दिन ताश की मंडली जमा लेंगे, लेकिन भाईसाहब की बात ही अलग है.’’

पड़ोसिनों की प्रशंसा से पुलकित, दीपकजी तब दोगुने उत्साह से पड़ोसियों के काम करते. प्रभा उन के ऐसे व्यवहार से कुढ़ती थी, यह बात नहीं. बस, उस का यही कहना था कि यह घोर सामाजिक व्यक्ति कभी तो पारिवारिक दायित्वों को सम?ो. यह क्या बात हुई कि लोगों के जिन कामों को दीपकजी तत्परता से निबटा आते थे, उन्हीं कामों के लिए प्रभा लाइन में धक्के खाती थी. कभी कुछ कह बैठती तो दीपकजी से स्वार्थी की उपाधि पाती. प्रभा को इस उपाधि से एतराज था भी नहीं. वह कहती, ‘ऐसे परमार्थ से तो स्वार्थ ही भला.’

‘आजकल महिलाएं भी पुरुषों के  कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ रही  हैं. उन्हें भी बाहर के सारे कामों का  ज्ञान होना अति आवश्यक है,’ दीपकजी  उसे सम?ाते. ‘ये उपदेश अपनी भाभियों को क्यों नहीं देते?’ प्रभा तैश में आ जाती. ‘उन्हें उन के पति देंगे, मैं कौन होता हूं,’ दीपकजी कहते.

‘बो?ा ढोने वाले?’ प्रभाजी मन ही मन कहतीं और मुसकरा पड़तीं. अवकाशप्राप्ति के बाद तो दीपकजी के पास समय ही समय था. मित्र, परिचित, रिश्तेदार सभी की तकलीफें दूर करने को वे हाजिर रहते. बाकी बचे समय में बच्चों के साथ टीवी देखते या ताश खेलते. कभीकभी दुनियाभर के समाचार सुन कर घंटों आपस में उन्हीं विषयों पर लंबा वार्त्तालाप करते, वादविवाद करते, चिंतित होते और सो जाते.

चिंता नहीं थी तो बस, इस बात की कि विकास ने अपने विकास के सारे रास्ते खुद ही क्यों अवरुद्ध कर रखे हैं? तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त कर के भी उसे बेकार घूमना क्यों पसंद है? 12वीं की परीक्षा का तनाव जब बच्चों के साथसाथ उन के मातापिता पर भी हावी रहता हो तब विभा और उस के पिता इस से अछूते क्यों हैं?

बच्चों का गैरजिम्मेदाराना व्यवहार प्रभा के मन में आग लगा जाता, पर जब पिता ही उन का दुश्मन बन बैठा हो तो वह बेचारी क्या करती. एक दिन दीपकजी किसी परिचित की बेटी का फौर्म कालेज में जमा  कर के लौट रहे थे कि दुर्घटना हो गई. उन के स्कूटर को पीछे से आती हुई कार की ठोकर लगी और वे स्कूटर से गिर पड़े. किसी ने उन्हें अस्पताल पहुंचाने के बाद घर पर प्रभा को सूचना दी.

सूचना पाते ही प्रभा के तो हाथपांव फूल गए. विकास को तो कुछ सू?ा ही नहीं रहा था. विभा बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगी. पड़ोसियों ने दोनों को संभाला, प्रभा को अस्पताल पहुंचाया. अस्पताल का बरामदा उन के मित्रों, परिचितों से ठसाठस भरा हुआ था. ऐसा लगता था मानो कोई लोकप्रिय नेता भरती हो. प्रभा को ढाढ़स बंधाने वाले भी कई थे. कोई उसे नीबूपानी पिला रहा था तो कोई उस के घर खाना पहुंचा रहा था. किसी ने दीपकजी के पास रात को रुकने की योजना बनाई थी तो कोई घर पर बच्चों के पास सोने जा रहा था.

प्रभा ने देखा कि विकास और विभा का व्यवहार ऐसी कठिन परिस्थिति में भी धीरज और हिम्मतभरा नहीं था. मां को सहारा देना तो दूर, वे दोनों मानो अपने ही होशोहवास खो बैठे थे. किशोर से युवा हो चुके बच्चों के इस व्यवहार को प्रभा ने काफी नजदीक से महसूस किया.

दीपकजी के पैर की हड्डी टूटी थी. 15 दिन बेहद आपाधापी में गुजरे, लेकिन प्रभा को कोई परेशानी नहीं हुई. एक तरह से सभी ने उन की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा रखी थी. सुबह के नाश्ते से ले कर रात के खाने तक, कोई न कोई सारा इंतजाम कर देता, वह भी अत्यंत विनम्रतापूर्वक, एहसान जताते हुए नहीं. सब का इतना मानसम्मान, प्यारदुलार पा कर प्रभा सचमुच अभिभूत थी.

बड़ी मुश्किल से जब एकांत मिला तब दीपकजी के सामने उस ने अपनी भावना जताई तो दीपकजी गद्गद हो गए. उन्होंने खुशी में प्रभा का हाथ थाम लिया. बच्चे भी कहने लगे, ‘‘मां, देखा, तुम ने पिताजी की समाजसेवा की हमेशा निंदा की है, लेकिन आज वे ही लोग हमारे कितना काम आ रहे हैं.’’

‘‘ठीक है, मैं ने मान तो लिया कि मैं गलत थी,’’ प्रभा तृप्तभाव से बोली. 15 दिनों बाद दीपकजी को अस्पताल से छुट्टी मिली तो घर पर आनेजाने वालों का तांता लग गया, लेकिन अभी 2-3 महीनों तक प्लास्टर लगना था. जैसेजैसे दिन बीतते गए, भीड़ छंटती गई. सभी अपनेअपने कामों में व्यस्त हो गए थे तो वे भी अपनी जगह पर गलत नहीं थे. आखिर कोई किसी के परिवार का कब तक बीड़ा उठाता.

प्रभा पर दोहरी जिम्मेदारी आन पड़ी. घर की व्यवस्था, बाहर का काम. इस के अलावा दीपकजी की परिचर्या. उस के पैरों में जैसे घिर्री लग गई.दीपकजी को अब एहसास होने लगा कि उन के बच्चे मां के काम में जरा भी हाथ नहीं बंटाते. दिनभर टीवी के सामने डटे रहेंगे या बाहर घूमते रहेंगे. दिनभर काम में लगी हुई प्रभा को देख कर उन के मन का रिक्त कोना भीगने लगा. पलंग पर पड़ेपड़े मूकदर्शक बने वे प्रभा की परेशानियों को जैसे नए सिरे से देखने लगे.

एक दिन जब प्रभा सब्जी लेने गई थी, दीपकजी ने बच्चों को आवाज दी और बड़े प्यार से कहा, ‘‘बेटा, घड़ी दो घड़ी पिताजी के पास भी तो बैठा करो,’’ फिर विभा से बोले, ‘‘आज खाना तुम बना लो, तुम्हारी मां सब्जी लेने गई है.’’उन की बात सुन कर विभा की आंखें फैल गईं. ‘‘खाना…मैं बनाऊंगी?’’

 

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