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उन के द्वारा कही बातों का कोई प्रतिउत्तर नहीं था नूपुर के पास. यह तो वह भी नहीं जानती थी कि मधुर क्यों नहीं आया था. मां और पापा के उलाहनों ने उस के कान छलनी कर डाले थे. “अब निर्णय तुम्हारे हाथ में है. चाहो तो उस के पास चली जाओ…””और हमारी नाक कटवा दो,” मां पापा की बात को बीच में काटते हुए बोल पड़ी थीं.

उन को चुप रहने का इशारा कर पापा ने आगे कहा था, “चाहो तो इसी घर में रह कर उस का इंतजार करती रहो…”“और हमारी छाती पर मूंग दलो,” मां फिर बीच में बोल पड़ी थीं, “छोड़ोजी, अंधे के आगे रोने में अपनी ही आंखों का घाटा है.”

“या फिर जहां हम कहें वहां अपना घर बसाओ. कहो, क्या निर्णय है तुम्हारा?” पापा की बात आज भी नूपुर के मन में ऐसी हरी है, जैसे आज ही शाम घटा कोई किस्सा हो. काश, तब आज की तरह हाथ में मोबाइल फोन होता तो झट पता कर लेती कि क्या कारण था जो मधुर उस शाम नहीं आ पाया था. चलो, आज तो है हाथ में मोबाइल फोन, परंतु क्या आज भी वह मधुर को फोन कर पा रही है?

कुछ सोचविचार कर वह स्टडीरूम में अपने लैपटौप को खोल कर कुछ टाइप करने बैठ गई. एक लंबी ईमेल लिखने के पश्चात उस के नेत्रों में बचीखुची नींद भी गायब हो गई. जब वह अपने कमरे में लौटी तो बिस्तर पर संजीव को नींद की आगोश में चैन से समाया देख मुसकराई, “कितने निश्चल लगते हैं संजीव सोते हुए, बिलकुल बच्चे की तरह. और जब जाग जाते हैं तो एक बार फिर बच्चों की मानिंद एक्टिव हो उठते हैं.”

संजीव को पति के रूप में पा कर नूपुर का जीवन संवर गया था. फिर आंगन में किलकारियां गूंजीं और नूपुर अपनी गृहस्थी की लहरों में प्रसन्नता के अतिरेक में बहती चली गई. सुख की स्वर्णकिरणों से ओजस अपने संसार को नूपुर बहुत सहेज कर रखती आई है. तभी तो हर बात में टचवुड कह लकड़ी की किसी वस्तु को हाथ लगाती फिरती है. उस की इस अदा पर मधुर भी उस की खिंचाई करते नहीं थकता. “जल्दी से टचवुड कर लो,” उस के हंसते ही मधुर उसे छेड़ता है.

मधुर का खयाल आते ही नूपुर के चेहरे पर मिलेजुले भाव तैरने लगे – कभी मधुर के साथ बिताए आनंद वाले पल तो कभी संजीव के साथ चलती सुखमय जिंदगी.इन्हीं विचारों में उलझे नूपुर के दिमाग की नसें तड़कने लगीं. वह इतना थक गई कि कब सो गई, उसे पता ही नहीं हुआ.

“मुझे मिलना है तुम से. केवल चैट कर लेने से मेरा मन नहीं भरता, ये बात तुम जानती हो,” मधुर कह रहा था.“जानती हूं, पर तुम भी तो जानते हो कि मेरी एक गृहस्थी है – पति है, बेटा है. यों ही उठ कर तुम से मिलने नहीं आ सकती मैं. याद है न, पिछली बार क्या हुआ था?” नूपुर ने कहा ही था कि इस स्वप्न ने उस की नींद उचाट डाली. मधुर के साथ ये संवाद उस के मन की उपज थे या फिर उन दोनों के दिलों की भावनाओं को शब्द मिल गए थे. अब जो होगा देखा जाएगा, जो करना था वो कर चुकी है नूपुर. एक बार फिर स्वयं को नींद के हवाले करने के हठ से उस ने फिर आंखें मूंद लीं.

कोई और दिन होता तो नूपुर संजीव के सो जाने के पश्चात अपने तकिए के नीचे से अपना फोन निकालती और चैट विंडो खोल कर मधुर को टैक्स्ट कर लेती. करीब 15-20 मिनट चैटिंग कर लेने के पश्चात नूपुर का मन तरोताजा हो जाता और वह संजीव की कमर में अपनी बांह सरकाते हुए सो जाती. किंतु अब बात भिन्न है. आज से नूपुर को इस चैटिंग से मिलती शीतलता से स्वयं प्रगमन करना होगा.

अगली सुबह नूपुर संजीव के अबोले व्यवहार से कुछ क्षुब्ध अवश्य हुई, परंतु उस ने संजीव पर ऐसा व्यक्त नहीं होने दिया. सारे काम विधिपूर्वक करती रही.नाश्ता कर के संजीव अपनी फैक्टरी चला गया. तेज भी अपने कालेज चला गया. अब नूपुर हर लिहाज से मुक्त थी – घर के काम से और अपनों की दृष्टि से. कुछ सोच कर वह पुनः अपने लैपटौप पर बैठ गई, शायद मधुर ने उस की ईमेल पढ़ ली हो, और उस का कोई प्रतिउत्तर आया हो. कैसा होगा वो प्रतिउत्तर? क्या लिखेगा वह? क्या स्वीकार लेगा उस के निर्णय को? यदि नहीं तो क्या करेगी नूपुर? कैसे मनाएगी उसे कि वह नूपुर की बात मान ले? ढेरों चिंताओं की लकीरों को अपने माथे पर बिछाए वह अपनी ईमेल चेक करने लगी. हां, मधुर की ईमेल आई है. एक क्षण को दिल धक्क से रह गया. हिम्मत कर उस ने मेल खोली.

 

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यह ईमेल लिखने के लिए मधुर को जितनी एकाग्रता की आवश्यकता है, वह उसे न तो घर में बीवीबच्चों के मध्य मिल सकती थी और न ही औफिस की आपाधापी में. तभी तो अपनी अगली मीटिंग को स्थगित कर वह केफेटेरिया में सब की ओर पीठ घुमा कर बैठा था, या यों कह सकते हैं कि छुपने का प्रयास कर रहा था. काश, उसे आज निर्जन एकांत प्राप्त हो पाता. शरीर भले ही उस का यहां उपस्थित था, किंतु मनप्राण से वह आज अतीत, वर्तमान और भविष्य के झूलों में डगमगा रहा था. कितनी बार उंगलियां फोन पर नूपुर का नंबर मिलाते हुए ठिठक चुकी थीं. उस की आवाज सुनेगा तो स्वयं को रोक नहीं सकेगा. इसलिए यही सही निर्णय था कि उसे ईमेल कर दिया जाए. मधुर ने ड्राफ्ट तैयार कर रखा था. उस में कुछ बदलाव, सुधार कर उस ने मेल सेंड की थी कि उसे अपने इनबौक्स में नूपुर की मेल दिखाई दी. आश्चर्य से उस ने मेल पढ़नी आरंभ कर दी.

 

“मेरे प्रियतम,

तुम से मिल कर कहना चाहती थी… पर हिम्मत ने साथ न दिया. तुम जानते हो न कि तुम्हारे सामने आते ही मैं किस कदर दीवानी हो जाती हूं. अपनी उम्र भूल बैठती हूं, तुम्हारी भी. लगने लगता है जैसे अब भी हम कालेज के विद्यार्थी हैं. समय पूरी रफ्तार से पीछे दौड़ने लगता है. परिपक्वता बिसरा देती हूं, इसलिए सही बात सही ढंग से शायद कह नहीं सकूंगी, सो तुम्हें मेल करना ही उचित लगा. तुम सोच रहे होगे कि आखिर ऐसी क्या बात होगी.

 

“याद है मधुर, जब हम दोनों कालेज के दिनों में मिले थे. वो हमारी पहली मुलाकात, जब रैगिंग के दौरान मेरी घिग्घी बंध गई थी. तुम भी तो थे उन रैगिंग करने वाले झुंड में.

 

“तुम्हारे आतंक के मारे सभी फ्रेशर्स कांप रहे थे. मुझे भी सब की बातें सुन कर तुम से डर लगने लगा था. लेकिन मेरी बारी आने पर जब तुम ने मुझे रूम से चले जाने का इशारा किया था, तब जा कर मेरी जान में जान आई थी. अपने सहपाठियों के शोर मचाने पर तुम्हारा एक उंगली का इशारा सब को कैसे चुप करवा गया था. बस, उसी पल मैं तुम्हारी दीवानी हो उठी थी.”

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