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अनुभा को यह बात गहरे तक चुभ गई, छटपटा कर बोली, ‘‘उपकार कर के जो व्यक्ति उस के बदले में कुछ मांगने लगे, उस का उपकार उपकार नहीं रह जाता, बल्कि बोझ बन जाता है. और मैं आप का यह बोझ जल्द ही उतार दूंगी,’’ भरे गले से किंतु दृढ़ निश्चय के साथ अनुभा ने कहा और वेदांत को ले कर आगे बढ़ गई. डा. विनीत मन मसोस कर रह गए.

इतनी समतल सी दिखने वाली जिंदगी ऐसे ऊबड़खाबड़ रास्तों पर ले जाएगी, अनुभा ने कभी सोचा भी न था. जिस जीवनयात्रा में प्रवीण और उसे साथसाथ चलना था, उस में प्रवीण बीच में ही थक कर उस से आज्ञा मांग रहे थे, नहीं, नहीं, वह इतनी सहजता से प्रवीण को जाने नहीं देगी. वह कुछ करेगी. मुंबई के तो सारे डाक्टरों ने जवाब दे दिया, क्या दुनिया के किसी कोने में कोई डाक्टर होगा जो उस के प्रवीण का इलाज कर देगा. वह अस्पताल में मैडिकल साइंस पर आधारित वैबसाइट पर सर्च करती हुई कंप्यूटर पर घंटों बैठी रहती, कहीं कोई तो सुराग मिले.

वह इन विषयों पर मैडिकल और रिसर्च से जुड़ी विभिन्न पत्रिकाएं मंगाने लगी. वह किसी भी हाल में डा. प्रवीण का इलाज कराना चाहती थी. एक दिन उस ने एक पत्रिका में अमेरिका के उच्च कोटि के न्यूरोसर्जन डा. पीटर एडबर्ग के बारे में पढ़ा. अच्छा यह रहा कि वे अगले महीने कुछ दिनों के लिए भारत आने वाले थे. अनुभा यह अवसर किसी हाल में हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी. वह प्रवीण को उन के पास ले कर गई. डाक्टर पीटर ने प्रवीण की अच्छी तरह जांच की, कुछ टैस्ट करवाए और आखिर में इस निर्णय पर पहुंचे कि यदि दिमाग की एक नस, जो पूरी तरह बंद हो गई है, औपरेशन के द्वारा खोल दी जाए तो रक्त का संचालन ठीक तरह से फिर प्रारंभ होगा और शायद मस्तिष्क अपने कार्य करने फिर प्रारंभ कर दे. पर अभी निश्चितरूप से कुछ कहा नहीं जा सकता.

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