आज सालों बाद मैं अपनी सहेली रीमा से मिलने जा रही हूं. बचपन से ही साथ खेले, पढ़े, बड़े हुए और सुखदुख में एकदूसरे के साथी बने. ग्रैजुऐशन करने के बाद मैं ने एमए में प्रवेश ले लिया था, जबकि रीमा के पुरातनपंथी मातापिता ने ग्रैजुऐशन करते ही उस का विवाह कर दिया था.

मेरा रीमा से कुछ विशेष ही लगाव था. इसलिए फोन पर हमारी बातें होती रहती थीं और जब कभी रीमा मायके आती तो हम दोनों का अधिकांश समय साथ ही गुजरता था. रीमा हमेशा ही मुझ से अपनी खुशहाल जिंदगी की बातें करती. अपने पति राजेश की प्रशंसा करते तो थकती नहीं थी.

एक दिन दफ्तर से घर लौटते समय राजेश का अचानक ऐक्सीडैंट हो गया और उस ने घटनास्थल पर ही दम तोड़ दिया. सूचना मिलते ही मैं भी रीमा के घर गई. उस पर तो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था.

कहते हैं, मुसीबत कभी अकेले नहीं आती. एक मुसीबत तो रीमा पर आन पड़ी थी दूसरे, ससुराल वालों की तीखी और कड़वी बातें उस का कलेजा छलनी कर देते. सब उसे ही पति की मौत का जिम्मेदार ठहराते.

"कुलच्छिनी, कलंकिनी, पति को खा गई..." जाने क्याक्या कटूक्तियां सुनतेसुनते रीमा के कान पक जाते. वह सोचती रहती कि अब यह जीवन कैसे कटेगा? क्या करूं, क्या न करूं?

मुझे तो एक ही हल समझ में आ रहा था कि रीमा अब अपनेआप को किसी काम में व्यस्त कर ले. व्यस्त रह कर वह अपने दुख को थोड़े समय के लिए ही सही, भुला तो सकेगी. साथ ही 5-6 घंटों के लिए सासननदों के तानों से भी उसे मुक्ति मिली रहेगी. मैं ने यही सब सोच कर अपनी बात रीमा के सामने रख दी.

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